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आत्मा की स्वतन्त्रता
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में वह पूर्णतया तर्कसंगत सिद्ध नहीं होता क्योंकि स्वभाववाद मानने पर नैतिक उत्तरदायित्व की समस्या उत्पन्न होगी। दूसरे, स्वभाववाद नैतिक जीवन में पुरुषार्थ की अवहेलना करेगा और पुरुषार्थ के अभाव में नैतिक प्रगति एवं नैतिक आदेश का कोई अर्थ नहीं रहेगा। तीसरे, यदि स्वभाववाद यह मानता है कि स्वभाव निर्मित होता है तो वह निरपेक्ष सिद्धान्त नहीं कहा जा सकता और फिर स्वभाव किस कारण बनता है यह प्रश्न भी तो महत्त्वपूर्ण होगा। चौथे, स्वभाववाद यदि यह मान लेता है कि सब कुछ ‘स्वभाव' से होता है तो आत्मा में विभाव मानना उचित नहीं होगा
और अनैतिक आचरण, असद्प्रवृत्ति, ज्ञान-शक्ति की सीमितता आदि के कारण क्या हैं यह बताना कठिन होगा। पाँचवें, सदाचरण और दुराचरण यदि स्वभावजन्य हैं. तो फिर दुराचारी कभी भी सदाचारी न हो सकेगा और इस प्रकार नैतिक विकास अथवा मुक्ति का कोई भी अर्थ नहीं रहेगा। स्वभाववाद का जैन दर्शन में स्थान
लेकिन उपयुक्त आलोचनाओं का यह अर्थ नहीं है कि स्वभाववाद का कोई स्थान ही नहीं है । जैन दर्शन में स्वभाव का मूल्य स्वीकृत है। भौतिक जगत् में तो स्वभाव (प्रकृति ) का एकछत्र राज्य है ही, लेकिन आध्यात्मिक क्षेत्र में भी विकास स्वभाव पर ही निर्भर करता है। नैतिक लक्ष्य आत्मा के स्वस्वरूप की उपलब्धि और नैतिक साधना का अर्थ आत्मा के स्वगुण को प्रकट करना ही है। जैन कर्मसिद्धान्त में भी स्वभाव का महत्त्वपूर्ण स्थान है । कर्मसिद्धान्त यह बताता है कि मूल स्वभाव का अवरोध हो जाना ही बन्धन ( कर्मावरण) है, और कर्मावरण का अलग हट जाना और मूल का स्वभाव प्रकट हो जाना ही मुक्ति है। कर्मसिद्धान्त यह भी मानकर चलता है कि नैतिक जीवन केवल स्वभाव को ही प्रकट करता है। अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन आदि गुण आत्मा का स्वभाव है, तभी तो नैतिक साधना के द्वारा उन्हें प्रकट किया जा सकता है। इतना ही नहीं, वहाँ तो नैतिक जीवन या सम्यक्चारित्र भी आत्मा का लक्षण माना गया है, क्योंकि तभी तो उसे अपनाया जा सकता है।
जैन दर्शन का विरोध स्वभाववाद से नहीं है, बल्कि स्वभाववाद के एकांगी दृष्टिकोण से है। मात्र स्वभाववाद के आधार पर नैतिक जीवन की व्याख्या सम्भव नहीं । स्वभाव का नैतिक जीवन में महत्त्वपूर्ण स्थान है, लेकिन उसे नैतिक जीवन का सबकुछ मानना भ्रान्ति होगी । जैन दार्शनिकों के अनुसार नैतिकता विभाव से स्वभाव की ओर प्रयाण है, और स्वस्वभाव में स्थित रहना ही नैतिक पूर्णता है। गीता जब 'स्वधर्मे निधनं श्रेयः' का उद्घोष करती है, तो यही कहती है । लेकिन स्वभाववाद मात्र स्वभाव की व्याख्या करता है, विभाव ( विकृति ) की नहीं, और इसलिए वह नैतिक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण होते हुए भी अपूर्ण है। यह अपूर्णता उसके कर्मसिद्धान्त के विरोधी होने में है। स्वभाववाद यदि कर्मसिद्धान्त और वैयक्तिक स्वतन्त्रता का एकान्त विरोधी बनता है तभी उसका नैतिक मूल्य समाप्त होता है। लेकिन स्वभाववाद कर्मसिद्धान्त
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