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________________ २६६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन विधान जैन दर्शन में कालवाद के ऊपर पुरुषार्थवाद की स्वीकृति को अभिव्यक्त करता है। ३. स्वभाववाद जगत् विविधताओं का पुंज है और स्वभाववाद के अनुसार स्वभाव ही इस विविधता का कारण है । अग्नि की उष्णता और जल की शीतलता स्वभावगत ही है। आम की गुठली से आम और बेर की गुठली से बेर ही उत्पन्न होगा, क्योंकि उनका स्वभाव ऐसा ही है । आचार्य गुणरत्न षड्दर्शनसमुच्चयवृत्ति में तथा आचार नेमिचन्द्र गोम्मटसार में स्वभाववाद की धारणा को निम्न शब्दों में अभिव्यक्त करते हैं, 'काँटे की तीक्ष्णता, मृग एवं पक्षियों की विचित्रता, ईख में माधुर्य, नीम में कटुता का कोई कर्ता नहीं है, वे गुण-स्वभाव से ही निर्मित होते हैं।' नैतिक जगत् में भी विविधताएं हैं । एक व्यक्ति सदाचार की ओर प्रवृत्त होता है, दूसरा दुराचार की ओर । आखिर इस विविधता का कारण क्या है ? स्वभाववादियों के अनुसार इसका कारण 'स्वभाव' ही है । महाभारत में शुभाशुभ प्रवृत्तियों का प्रेरक स्वभाव माना गया है । स्वभाववाद यह मानता है कि सभी कुछ स्वभाव से निर्धारित है, व्यक्ति अपने प्रयत्न या पुरुषार्थ से उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता। महाभारत में कहा गया है कि सभी तरह के भाव और अभाव स्वभाव से प्रवर्तित एवं निवर्तित होते हैं, पुरुष के प्रयत्न से कुछ नहीं होता । गीता में कहा गया है कि लोक का प्रवर्तन स्वभाव से ही हो रहा है। स्वभाववाद का नैतिक योगदान __स्वभाववाद का नैतिक योगदान दो रूपों में है-एक तो स्वभाववाद आदत के रूप में हमारे चरित्र को व्याख्या प्रस्तुत करता है, वह नैतिक जीवन में आदत या स्वभाव का महत्त्व स्पष्ट करता है। दूसरे स्वभाववाद कर्तृत्वभाव एवं अभिमान के दोषों से बचा लेता है तथा दुर्जनों पर भी करुणा भाव रखने का सन्देश देता है। यदि सभी शुभाशुभ प्रवृत्ति स्वभाव से ही होती है तो अपनो श्रेष्ठता का अभिमान एवं कर्तृत्व भाव भी वृथा होगा। दूसरे, यदि दुर्जन की दुर्जनता भी स्वभाव के कारण है तो वह हमारे क्रोध का नहीं वरन् दया का पात्र ही होना चाहिए। इस प्रकार स्वभाववादी शुभाशुभ स्थितियों में किसी को दोषी नहीं मानते हुए समभाव का पाठ पढ़ाता है । समीक्षा स्वभाववाद जागतिक वैचित्र्य की व्याख्या कर सकता है, लेकिन नैतिकता के क्षेत्र १. (अ) चार्वाक दर्शन की शास्त्रीय समीक्षा, पृ० १४३. (ब) गोम्मटसार (कर्मकाण्ड ), गा० ८८३. २. महाभारत, शान्तिपर्व, २२२।२२. ३. वही, २२२११५. ४. गीता, ५।१४. ५. महाभारत, शान्ति पर्व, २२२।२२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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