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आत्मा को स्वतन्त्रता
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हुए लोगों में भी जागता है। उसे कोई भी धोखा नहीं दे सकता ।" इस प्रकार कालवाद काल को महत्त्व देकर यह बताता है कि काल के पकने पर ही कार्यनिष्पत्ति सम्भव है । काललब्धि की परिपक्वता ही वैयक्तिक विकास में सहायक या बाधक बनती है ।
कालवाद का नैतिक जीवन में योगदान
कालवाद कर्तृत्वभाव एवं अहंकार का निराकरण कर किस रूप में नैतिक विकास में सहायक होता है, इसका सुन्दर चित्रण महाभारत में मिलता है । बलि इस सिद्धान्त के माध्यम से इन्द्र को समभाव का सुन्दर पाठ पढ़ाते हैं । वे कहते हैं, काल है, अतः विद्वान् पुरुष नाश, विनाश, ऐश्वर्य, सुख-दुःख के प्राप्त प्रसन्न होता है और न खेद करता है । 2
समीक्षा
फिर भी कालवाद का सिद्धान्त मानने पर नैतिकता क्योंकि ( १ ) कालवाद में पुरुषार्थ का कोई स्थान नहीं है, मान लेता है, जबकि नैतिक दृष्टि से व्यक्ति में पुरुषार्थ की है । ( २ ) काल को ही एकमात्र कारण नहीं माना जा कि समयमर्यादा के पूर्ण होने पर कच्चा फल पकता है, समय के आने पर ही वृक्ष फल देने में समर्थ होता है । फिर भी समय ही एकमात्र प्रमुख कारण नहीं माना जा सकता । पुरुषार्थ के द्वारा भी कुछ बातें समय पकने के पूर्व ही उपलब्ध की जा सकती हैं। आम के एक वृक्ष में यदि सामान्यतया पाँच वर्ष के पश्चात् फल आते हों तो हम अपने प्रयास, जल और खाद के द्वारा एक-दो वर्ष पूर्व ही फल प्राप्त कर सकते हैं । कालवाद के एकांगी दृष्टिकोण की आलोचना शास्त्रवार्तासमुच्चय में भी की गयी है । जैन दर्शन में कालवाद का स्थान
१. गोम्मटसार ( कर्मकाण्ड ), ८७९. २. महाभारत, शान्तिपर्व, २२९।७३-७४. ३. तत्त्वार्थसूत्र, ५/२२.
सभी का कारण होने पर न तो
की व्याख्या सम्भव नहीं । वह व्यक्ति को पुरुषार्थहीन सम्भावना मानना अनिवार्य सकता, यद्यपि यह सही है
जैन विचारकों ने अपनी तत्त्वमीमांसा में काल को स्वतन्त्र तत्त्व के रूप में स्वीकार कर उसे समस्त परिवर्तनों का आधार माना है । उनके अनुसार, वस्तुतत्त्व में परिवर्तन - शीलता के गुण का कारण काल है 13 जैन कर्मवाद में भी काल का समुचित मूल्यांकन हुआ है । कर्मवाद में प्रत्येक प्रकार की कर्मवर्गणाओं के बन्धन से मुक्ति तक के काल के सम्बन्ध में पर्याप्त विचार हुआ है, फिर भी यह ध्यान में रखना चाहिए कि कर्मवाद में to पुरुषार्थ के लिए एक सहायक तत्त्व तो बनता है लेकिन वह पुरुषार्थ का स्थान नहीं ले सकता । दूसरे, कर्मवाद में यह भी माना गया है कि नियत काल के पहले ही पुरुषार्थ द्वारा कर्मों का फल प्राप्त किया जा सकता है । कर्मसिद्धान्त में 'उदीरणा' का
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