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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
गोशालक यह मानते हैं कि भावी घटनाएँ ( भवितव्यता) पूर्वनियत हैं, उसमें परिवर्तन सम्भव नहीं है। यदि भवितव्यता में परिवर्तन सम्भव नहीं, तो इच्छा-स्वातन्त्र्य और पुरुषार्थ का कोई प्रश्न ही नहीं उठता। यह दृष्टिकोण किसी घटना की उत्पत्ति के कारण के रूप में व्यक्ति के पुरुषार्थ को स्वीकार नहीं करता, वरन् यह मानता है कि घटनाएँ पूर्वनियत हैं और जिस प्रकार सूत का गोला खुलता जाता है और सूत बाहर आता जाता है उसी प्रकार कालरूपी गोला खुलता जाता है और पूर्व नियत घटनाएँ घटित होती रहती हैं । समीक्षा
यह भवितव्यता या पूर्वनिर्धारणवादी नियतिवाद आचारदर्शन को यदृच्छावाद के दोषों से बचाकर नैतिक उनरदायित्व की व्याख्या करने का प्रयास करता है। साथ ही नैतिक जीवन में सन्तोष पर बल देते हुए भूत और भविष्य की दुश्चिन्ताओं एवं आकांक्षाओं से बचाता है। लेकिन वह स्वयं एक दूसरी अति की ओर चला जाता है जिसमें नैतिक उत्तरदायित्व को व्याख्या सम्भव नहीं होती। जब व्यक्ति के समस्त क्रियाकलापों को पूर्वनियत मान लिया जाता है तो नैतिक उत्तरदायित्व एवं नैतिक आदेश का कोई अर्थ नहीं रहता। २. कालवाद
कालवाद यह मानता है कि काल ही प्रमुख तत्त्व है । काल के द्वारा ही क्रियाकलापों का निर्धारण होता है । सृष्टि की सारी क्रियाएँ एवं घटनाएँ काल के अधीन हैं और काल के गर्भ में स्थित हैं। अतीत, वर्तमान और भविष्य सभी काल के गर्भ में समाहित हैं। कालातीत दृष्टि से विचार करने पर भविष्य भविष्य नहीं रहेगा और सभी घटनाएँ काल में पूर्वनियत होंगी। यदि घटनाएं काल में नियत हैं तो व्यक्ति उसमें कोई परिवर्तन नहीं कर सकता और इस अर्थ में व्यक्ति के पुरुषार्थ और स्वतन्त्रता का कोई अर्थ नहीं रह जाता। अथर्ववेद में कहा गया है कि काल ने पृथ्वी को उत्पन्न किया, काल के आधार पर सूर्य तपता है, काल के आधार पर ही समस्त भूत रहते हैं, काल के कारण ही आँखें देखती हैं, काल ही ईश्वर है । वह प्रजापति का भी पिता है।' महाभारत में काल को समस्त जगत् के सुख-दुःख, जीवन-मरण आदि का कारण कहा गया है-लाभ-हानि, सुख-दुःख, काम-क्रोध, अभ्युदय और पराभव तथा बन्धन और मोक्ष सभी काल के द्वारा होता है ।२ गीता में भी जीवन-मरण आदि का कारण काल ही कहा गया है । जैन ग्रन्थ गोम्मटसार में इस सिद्धान्त को निम्न रूप में प्रस्तुत किया गया है, 'काल ही सबको उत्पन्न करनेवाला एवं नष्ट करनेवाला है। वह सोये
१. अथर्ववेद, १६।६।५३-५४. २. महाभारत, शान्तिपर्व, २२७।८३-८४. ३. गीता, ११॥३२.
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