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________________ १० कर्म-सिद्धान्त २९५ २९६ २९८ २९८ २९९ ३०३ १. नैतिक विचारणा में कर्म-सिद्धान्त का स्थान २. कर्म-सिद्धान्त की मौलिक स्वीकृतियाँ और फलितार्थ संक्षेप में इन आधारभूत मान्यताओं के फलितार्थ निम्नलिखित हैं २९७/ ३. कर्म-सिद्धान्त का उद्भव ४. कारण सम्बन्धी विभिन्न मान्यताएँ १. कालवाद २९८ । २. स्वभाववाद २९८ / ३. नियतिवाद २९९ / ४. यदृच्छावाद २९९ / ५. महाभूतवाद २९९ / ६. प्रकृतिवाद २९९ / ७. ईश्वरवाद २९९ / ५. औपनिषदिक दृष्टिकोण गीता का दृष्टिकोण ३०० | बौद्ध दृष्टिकोण ३०० | जैन दृष्टि कोण ३०१ । ६. जैन दर्शन का समन्वयवादी दृष्टिकोण ___ गीता के द्वारा जैन दृष्टिकोण का समर्थन ३०३ / ७. 'कर्म' शब्द का अर्थ गीता में कर्म शब्द का अर्थ ३०४ / बौद्ध दर्शन में कर्म का अर्थ ३०४ / जैन दर्शन में कर्म शब्द का अर्थ ३०५ / ८. कर्म का भौतिक स्वरूप द्रव्य-कर्म और भाव-कर्म ३०७ / द्रव्य-कर्म और भाव-कर्म का सम्बन्ध ३०८ / (अ) बौद्ध दृष्टिकोण एवं उसकी समीक्षा ३०८ / (ब) सांख्य दर्शन और शांकर वेदान्त के दृष्टिकोण की समीक्षा ३१० / गीता का दृष्टिकोण ३१० | एक समग्र दृष्टि कोण आवश्यक ३११ / ९. भौतिक और अभौतिक पक्षों की पारस्परिक प्रभावकता १०. कर्म की मूर्तता मूर्त का अमूर्त प्रभाव ३१३ / मूर्त का अमूर्त से सम्बन्ध ३१४ / ११. कर्म और विपाक की परम्परा जैन दृष्टिकोण ३१४ | बौद्ध दृष्टिकोण ३१४ / १२. कर्मफल संविभाग ३०४ ३०६ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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