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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
व्यक्ति का अपना कुछ भी नहीं होगा। जिस आदर्श का चयन व्यक्ति के द्वारा न हो और जिसकी उपलब्धि में उसका अपना कोई ऐच्छिक कार्य न हो, वह उसका आदर्श नहीं होगा और वह उपलब्धि भी उसकी नहीं कही जा सकेगी। व्यक्ति जो कुछ कर सकता है वही उसका कर्तव्य बन सकता है। जिस कार्य के सम्पन्न करने की क्षमता व्यक्ति में नहीं है वह कार्य उसका कर्तव्य भी नहीं हो सकता । अरस्तू ने कहा है, आदर्श को मनुष्य के लिए व्यवहार्य और प्राप्तियोग्य होना चाहिए। जिस आदर्श को व्यक्ति उपलब्ध नहीं कर सकता, उसे उसका आदर्श या लक्ष्य नहीं कहा जा सकता । जो विचारक व्यक्ति में ऐसी स्वतन्त्र संकल्प और आचरण की शक्ति का अभाव मानते हैं वे आचारदर्शन को आदर्शमूलक विज्ञान की अपेक्षा प्रकृत-इतिहास बना देते हैं और इस प्रकार आचारदर्शन के मूल स्वरूप को ही समाप्त कर देते हैं। व्यक्ति-स्वातन्त्र्य के दो दृष्टिकोण
यदि स्वतन्त्रता आवश्यक है तो प्रश्न यह उठता है कि क्या व्यक्ति स्वतन्त्र है ? इस विषय में प्राचीन काल से ही दो दृष्टिकोण रहे हैं। जिन लोगों ने इस प्रश्न का उत्तर स्वीकारात्मक रूप में दिया और यह माना कि व्यक्ति कृत्यों के चयन और उनके सम्पादन में स्वच्छन्द है, उन्हें प्राचीन भारतीय दर्शन में यदृच्छावादी कहा जाता है और पाश्चात्य विचारणा में अतन्त्रतावादी या अनिर्धारणवादी कहा जाता है। इसके विपरीत जिन विचारकों ने इस प्रश्न का उत्तर निषेधात्मक रूप में दिया और यह माना कि व्यक्ति में ऐसी स्वच्छन्दता का अभाव है, उन्हें भारतीय चिन्तन में नियतिवादी, भाग्यवादी, दैववादी आदि के रूप में जाना जाता है। पश्चिम में इन्हें नियतिवादी, परतन्त्रतावादी या निर्धारणवादी कहते हैं । यदृच्छावादी और नियतिवादी धारणाएँ व्यक्ति की स्वतन्त्रता के सम्बन्ध में परस्पर विरोधी विचार प्रस्तुत करती हैं, मतः सामान्य व्यक्ति के लिए यह कठिन हो जाता है कि वह किसे सत्य और किसे असत्य कहे । दार्शनिकों ने प्राचीन काल से इन सिद्धान्तों की गहन समीक्षा की है और इनके औचित्य का ठीक-ठीक मूल्यांकन करने का भी प्रयास किया है । अगले पृष्ठों में उनकी समीक्षाएँ प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । १२. महावीरकालीन नियतिवादी मान्यताएँ
अनिर्धारणवाद ( पुरुषार्थवाद ) यह मानता है कि व्यक्ति अपने लक्ष्य का निर्धारण करने में, उसकी प्राप्ति के प्रयास में और उस लक्ष्य की उपलब्धि करने में स्वच्छन्द एवं सक्षम है। लेकिन यह धारणा अनुभवात्मक जीवन में खरी नहीं उतरती और अनुभवात्मक जीवन की अनेक घटनाओं की व्याख्या करने में पुरुषार्थवाद असफल हो जाता है। अनुभवात्मक जीवन में एक ओर व्यक्ति के निरन्तर लक्ष्यात्मक, उचित १. क्षमता से हमारा तात्पर्य योग्यता ( ability ) से न होकर क्षमता ( capability)
२. नीतिप्रवेशिका, पृ० ७१.
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