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________________ ww $१. नैतिक जीवन और स्वतन्त्रता पाश्चात्य विचारक कांट नैतिक आदेश को एक निरपेक्ष आदेश मानते हैं जब कि गीता उसे ईश्वरीय आदेश मानती है । चाहे निरपेक्ष आदेश कहें या ईश्वरीय आदेश, कर्म -संकल्प की स्वतन्त्रता को मानना आवश्यक है । आदेश का अर्थ है 'तुम्हें यह करना चाहिए ।' लेकिन 'चाहिए' में स्वतन्त्रता छिपी हुई है । कांट कहते हैं कि तुम्हें करना चाहिए, क्योंकि तुम कर सकते हो ।' स्वतन्त्रता के अभाव में 'चाहिए' का कोई अर्थ ही नहीं रहता है । यदि हम गीता और कांट की तरह नैतिकता को आदेश के रूप में न मानें, वरन् जैन और बौद्ध विचारकों के समान नैतिकता को एक ऐसे आदर्श के रूप में स्वीकार करें, जिसे प्राप्त करना है, तो भी कर्म एवं संकल्प की स्वतन्त्रता को मानना आवश्यक है । नैतिकता के लिए हर स्थिति में मनुष्य में कर्म एवं संकल्प की स्वतन्त्रता की धारणा आवश्यक है । नैतिक आचरण एक संकल्पात्मक कर्म | यदि हम संकल्प करने और तदनुरूप आचरण करने में व्यक्ति को स्वतन्त्र नहीं मानते हैं तो नैतिक उत्तरदायित्व का कोई अर्थ ही नहीं रह जाता। यदि मनुष्य नैतिक आदर्श को प्राप्त करने की कोई स्वतन्त्र शक्ति नहीं रखता अथवा वह नैतिक आदेश का पालन करने और नहीं करने में स्वतन्त्र नहीं है तो उसके लिए नैतिक आदेश एवं नैतिक आदर्श दोनों ही निरर्थक हो जाते हैं । डॉ० राधाकृष्णन् लिखते हैं, 'यदि मनुष्य केवल सहज वृत्ति से चलनेवाला सीधा-सादा प्राणी हो, यदि उसकी इच्छाएँ और उसके निर्णय केवल अनुवांशिकता और परिवेश की शक्तियों के ही परिणाम हों तब नैतिक निर्णय बिलकुल असंगत है । मैकेंजी का कथन है, यदि नैतिक आदेश में कोई सार्थकता है। तो संकल्प पूरी तरह से परिस्थितियों के अधीन नहीं हो सकता, बल्कि किसी अर्थ में उसे स्वतन्त्र अवश्य होना चाहिए । स्वतन्त्रता के अभाव में व्यक्ति को पुण्य और पाप के लिए उत्तरदायी भी नहीं ठहराया जा सकता, न उसे शुभ और अशुभ कर्म के फल के रूप में पुरस्कार और दण्ड ही दिया जा सकता है । यदि व्यक्ति शुभाशुभ कर्मों का चयन करने और उनका आचरण करने में स्वतन्त्र नहीं है तो वह उनके फल का अधिका भी नहीं हो सकता । दूसरे, चाहे संकल्प और कर्म की स्वतन्त्रता के अभाव में नैतिक आदर्श की प्राप्ति मानी भी जाये, लेकिन यह एक ऐसी उपलब्धि होगी जिसमें १. नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ६९. २. भगवद्गीता ( रा० ), पृ० ५०. ३. नीतिप्रवेशिका, पृ० ७१. आत्मा की स्वतन्त्रता Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org :
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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