________________
२५४
जैन, बौद्ध तथा गीता के माचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन करती है । श्रीकृष्ण कहते हैं, जैसे जीवात्मा को इस शरीर में कुमार, युवा और वृद्ध अवस्थाएं प्राप्त होती है, वैसे ही इसे अन्य शरीरों की प्राप्ति भी होती है। जैसे मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को बदलकर नवीन वस्त्र ग्रहण करता है, वैसे ही यह आत्मा पुराने शरीरों को छोड़कर नये शरीर ग्रहण करता है । गीताकार नैतिक साध्य की प्राप्ति के निमित्त अनेक जन्मों की साधना को आवश्यक मानते हैं । इस आधार पर पुनर्जन्म का समर्थन भी किया गया है । गीता में अनेक स्थानों पर पुनर्जन्म सम्बन्धी निर्देश उपलब्ध हैं। गीता में यह भी माना गया है कि प्राणी को अपने शुभाशुभ कर्मों के आधार पर उच्चलोक ( दैवीय जीवन ) मध्यलोक ( मानवीय जीवन ) और अधोलोक (नारकीय एवं पशु जीवन ) की प्राप्ति होती है।
उपनिषदों से भी इसका समर्थन होता है कि यदि प्राणी शुभाचरण करता है तो वह शुभ योनियों में जन्म लेता है और अशुभ आचरण करता है तो निम्न योनियों में जन्म लेता है । कठोपनिषद् में कहा गया है कि अपने कर्म और ज्ञान के अनुसार कितने ही देहधारी तो शरीर धारण करने के लिए किसी योनि को प्राप्त होते हैं और कितने ही स्थावर-भाव वृक्षादि की जाति को प्राप्त हो जाते हैं।' छान्दोग्योपनिषद् में भी कहा गया है कि जो अच्छा आचरण करेंगे वे अगले जीवन में ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य आदि का अच्छा जीवन प्राप्त करेंगे, लेकिन जो दुराचारी होंगे वे शूकर, कुत्ते और शूद्र आदि की निम्न योनियों में जन्म लेंगे। निष्कर्ष
__ इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन, बौद्ध और गीता के आचारदर्शन पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार करते हैं । पुनर्जन्म के सिद्धान्त का महत्त्वपूर्ण लाभ यह है कि वह जहाँ एक ओर व्यक्ति में अवसर की अनेकता के आधार पर घोर निराशा के क्षणों में भी आशावादिता का संचार करता है, वहाँ यह बताता है कि हम जब तक नैतिक साध्य निर्वाण की प्राप्ति नहीं कर लेते हैं तब तक हमें प्रकृति की ओर से अवसर प्रदान किए जाते रहेंगे ताकि हम अपने साध्य को प्राप्त कर सकें। दूसरी ओर, व्यक्ति के हृदय से मृत्यु के भय को समाप्त करता है। १४. पाश्चात्य दर्शन में आत्मा को अमरता या मरणोत्तर जीवन
पाश्चात्य दार्शनिक क्षेत्र में भी इस प्रश्न पर गहराई से विचार किया गया है। प्लेटो से लेकर वर्तमान युग तक आत्मा की अमरता या मरणोत्तर जीवन की सिद्धि के १. गीता, २।१३. . २. वही, २।२२. ३. वही, ६।४५, ७१६. ४. वही, १४।१८, १६।२०. ५. कठोपनिषद्, २।२।७. ६. छान्दोग्योपनिषद्, ५।१०।७.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org