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________________ आत्मा को अमरता २५३ से समाधान के लिए प्रश्न किया, भन्ते नागसेन ! कौन उत्पन्न होता है ( पुनर्जन्म ग्रहण करता है)? क्या वह वही रहता है या अन्य हो जाता है ? नागसेन ने उत्तर दिया, न तो वही और न अन्य । जैसे एक युवक वृद्ध होने तक न तो वही रहता है और न अन्य हो जाता है, वैसे जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है वह न तो वही रहता है, न अन्य हो जाता है। मिलिन्द फिर भी सन्तुष्ट न हो सका। उसने यह जानना चाहा कि वह क्या है जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है ? नागसेन ने इसके उत्तर में स्पष्ट किया कि यह नामरूपात्मक सन्तति-प्रवाह ही पुनर्जन्म ग्रहण करता है । वे कहते हैं, राजन् ! मृत्यु के समय जिसका अन्त होता है, वह तो एक अन्य नामरूप होता है और जो पुनर्जन्म ग्रहण करता है, वह एक अन्य । किन्तु द्वितीय ( नामरूप ) प्रथम ( नामरूप) में से ही निकलता है । अतः हे महाराज ! धर्म-सन्तति हो संसरण करती है। भगवान् बुद्ध के समय में साति केवट्टपुत्त नामक भिक्षु को यह मिथ्या धारणा उत्पन्न हुई थी कि वही एक विज्ञान आवागमन करता है। इसपर भगवान् ने उसे समझाया था कि विज्ञान तो प्रतीत्यसमुत्पन्न है । वह तो भौतिक पदार्थों की अपेक्षा भी अधिक क्षणिक है । वह शाश्वत रूप से संसरण करनेवाला नहीं हो सकता । वस्तुस्थिति यह है कि एक जन्म के अन्तिम विज्ञान (चेतना) के लय होते ही दूसरे जन्म का प्रथम विज्ञान उठ खड़ा होता है । इस कारण न तो वही जीव रहता है और न दूसरा ही हो जाता है। बौद्ध दर्शन अनेक चित्तधाराओं को स्वीकार करता है। वह यह मानता है कि क क, क२ क क एक चित्तधारा है और ख ख, ख२ ख खर दूसरी चित्तधारा है । यद्यपि क, क२ क एकदूसरे से अभिन्न नहीं हैं और ख, ख२ ख भी एकदूसरे से अभिन्न नहीं है, तथापि इनमें से प्रत्येक आत्मसन्तान के सदस्यों के बीच जो बन्धुता है, वह एक आत्मसन्तान के एक सदस्य और दूसरी आत्मसन्तान के सदस्य अर्थात् क, या ख, के बीच नहीं है । बौद्ध धर्म आत्मा का ऐसी स्थायी सत्ता के रूप में जो बदलती हुई शारीरिक और मानसिक अवस्थाओं के बीच स्वयं अपरिवर्तित बनी रहे, अवश्य निषेध करता है; पर उसके स्थान पर एक तरल आत्मा को स्वीकार करता है । बौद्ध दर्शन उपादान के अभेद के अर्थ में एकता को तो अस्वीकार करता है, लेकिन उसके स्थान पर सातत्य को स्वीकार करता है। यह आत्मसन्तानों की प्रवाही धाराओं का सातत्य ही बौद्ध दर्शन का 'आत्मा' है। यही तरल आत्मा पुनर्जन्म ग्रहण करता है। इस प्रकार बौद्ध अनात्मवाद और क्षणिकवाद की भूमि को क्षति पहुँचाए बिना पुनर्जन्म की व्याख्या सम्भव है । 10 गीता का दृष्टिकोण गीता भी जैन दर्शन के समान आत्मा की अमरता के साथ पुनर्जन्म को स्वीकार १. मिलिन्दपन्हो ( लक्खणपन्हो ); उद्धृत-बौद्ध धर्म तथा अन्य भारतीय दर्शन, पृ० ४८४. २. वही, पृ० ४८५. ३. भारतीय दर्शन की रूपरेखा, पृ० १४६.१४७. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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