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________________ आत्मा की अमरता २५६ पर भी व्यक्त हो जाती हैं। यह भी तर्क दिया जाता है कि हमें अपने जिन कृत्यों की स्मृति नहीं है, हम क्यों उनके प्रतिफल का भोग करें ? लेकिन यह तर्क भी समुचित नहीं है । इससे क्या फर्क पड़ता है कि हमें अपने कर्मों की स्मृति है या नहीं ? यदि हमने उन्हें किया है तो उनका फल भोगना ही होगा। यदि कोई व्यक्ति इतना अधिक मद्यपान कर ले कि नशे में उसे अपने किये हुए मद्यपान की स्मृति भी नहीं रहे, लेकिन इससे क्या वह उसके नशे से बच सकता है ? जो किया है, उसका भोग अनिवार्य है, चाहे उसकी स्मृति हो या न हो ।' जैन दृष्टिकोण जैन चिन्तकों ने इसीलिए कर्मसिद्धान्त की स्वीकृति के साथ-साथ आत्मा की अमरता और पुनर्जन्म के सिद्धान्त को स्वीकार किया है। जैन विचारणा यह स्वीकार करती है कि प्राणियों में क्षमता एवं अवसरों की सुविधा आदि का जो जन्मना नैसर्गिक वैषम्य है, उसका कारण प्राणी के अपने ही पूर्वजन्मों के कृत्य हैं। संक्षेप में वंशानुगत एवं नैसर्गिक वैषम्य पूर्वजन्मों के शुभाशुभ कृत्यों का फल है। यही नहीं, वरन् अनुकूल एवं प्रतिकूल परिवेश की उपलब्धि भी शुभाशुभ कृत्यों का फल है । स्थानांगसूत्र में भूत, वर्तमान और भावी जन्मों में शुभाशुभ कर्मों के फल-सम्बन्ध की दृष्टि से आ० विकल्प माने गये हैं-(१) वर्तमान जन्म के अशुभ कर्म वर्तमान जन्म में ही फल देवें । ( २ ) वर्तमान जन्म के अशुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें । (३) भूतकालीन जन्मों के अशुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें । ( ४ ) भूतकालीन जन्मों के अशुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें । (५) वर्तमान जन्म के शुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें । (६) वर्तमान जन्म के शुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें । (७) भूतकालीन जन्मों के शुभ कर्म वर्तमान जन्म में फल देवें। (८) भूतकालीन जन्मों के शुभ कर्म भावी जन्मों में फल देवें । इस प्रकार जैन दर्शन में वर्तमान जीवन का सम्बन्ध भूतकालीन एवं भावी जन्मों से माना गया है । जैन दर्शन के अनुसार चार प्रकार की योनियाँ हैं-(१) देव ( स्वर्गीय जीवन ), (२) मनुष्य, ( ३ ) तिर्यंच ( वानस्पतिक एवं पशु जीवन ), और (४) नारक ( नारकीय जीवन)। प्राणी अपने शुभाशुभ कर्मों के अनुसार इन योनियों में जन्म लेता है । यदि वह शुभ कर्म करता है तो देव और मनुष्य के रूप में जन्म लेता है और अशुभ कर्म करता है तो पशु गति या नारकीय गति प्राप्त करता है। मनुष्य मरकर पशु भी हो सकता है और देव भी। प्राणी भावी जीवन में क्या होगा. यह उसके वर्तमान जीवन के नैतिक आचरण पर निर्भर करता है। १. देखिए-जैन साइकालाजी, पृ० १७५. २. स्थानांग, ६।२।७. ३. तत्त्वार्थसत्र, ८।११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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