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________________ २३८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन और इस्लाम धर्म पुनर्जन्म नहीं मानते हैं। भारतीय दर्शनों में चार्वाक आत्मा की नित्यता एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त को नहीं मानता। बौद्ध दर्शन भी नित्य-आत्मवाद को नहीं मानता, लेकिन पुनर्जन्म मानता है। शेष सभी दर्शन नित्य-आत्मवाद एवं पुनर्जन्म को स्वीकार करते है । उपनिषद्, वेदान्त, सांख्य, योग, न्याय, वैशेषिक और मीमांसक सभी का आत्मा की नित्यता में विश्वास है । गीता में भी आत्मा को अज, शाश्वत एवं नित्य कहा गया है । जैन दर्शन ने भी तत्त्व-दृष्टि से आत्मा को नित्य माना है । एकान्त नित्य-आत्मवाद की नैतिक कठिनाई १. आत्मा की नित्यता का विचार भी एक आत्मासक्ति है, इसलिए तृष्णा ही है। जहाँ आत्मा को नित्य माना जाता है, वहाँ उससे 'मेरा' आत्मा ऐसा लगाव उत्पन्न हो जाता है । यह राग है और बन्धन का कारण है । पूर्ण निर्वेद के लिए सभी पदार्थों को और उनके सम्बन्धों को अनित्य रूप में देखना होगा, चाहे वह आत्मा ही हो । यदि उन्हें नित्य माना गया तो पूर्ण विराग नहीं हो सकता । इस प्रकार आत्मा की नित्यता की धारणा भी आत्मासक्ति है जो नैतिक साधना के लिए अनुचित है। २. यदि आत्मा की ध्रौव्यता को स्वीकार किया गया और उसमें होनेवाले उत्पाद-व्यय को स्वीकार नहीं किया गया तो आत्मा की पर्यायावस्थाएँ नहीं होंगी और पर्यायावस्थाओं के अभाव में किसी भी प्रकार का स्थित्यन्तर सम्भव नहीं होगा। फिर बन्ध-मोक्ष, पुण्य-पाप आदि अवस्थाएँ आत्मा पर लागू नहीं होंगी । इस प्रकार एकान्तनित्यता की मान्यता में वे सभी दोष उठ खड़े होंगे जो अपरिणामी आत्मवाद के हैं । ३३. जैन दृष्टिकोण ___ जैन विचारकों ने नैतिक विचारणा तथा संसार और मोक्ष की उपपत्ति के लिए न तो नित्य-आत्मवाद को उपयुक्त समझा और न अनित्य-आत्मवाद को; एकान्त नित्यवाद और एकान्त अनित्यवाद दोनों ही सदोष हैं। आचार्य हेमचन्द्र दोनों को नैतिक दर्शन की दृष्टि से अनुपयुक्त बताते हुए लिखते हैं, यदि आत्मा को एकान्त नित्य मानें तो इसका अर्थ होगा कि आत्मा में अवस्थान्तर अथवा स्थित्यन्तर नहीं होता। यदि इसे मान लिया जाये तो सुख-दुःख, शुभ-अशुभ आदि भिन्न-भिन्न अवस्थाएं आत्मा में घटित नहीं होंगी। फिर स्थित्यन्तर या भिन्न-भिन्न परिणामों, शुभाशुभ भावों की शक्यता न होने से पुण्य-पाप की विभिन्न वृत्तियाँ एवं प्रवृत्तियाँ भी सम्भव नहीं होंगी, न बन्धन और मोक्ष की उपपत्ति की जा सकेगी। एकान्त रूप से आत्मा को अनित्य या क्षणिक मानने पर भी सत्कर्म और दुष्कर्म के विपाक के फलस्वरूप होनेवाले सुखदुःख का भोग, पुण्य-पाप तथा बन्धन और मोक्ष की उपपत्ति सम्भव नहीं है। क्योंकि वहाँ एक क्षण के पर्याय में जो कार्य किया था, उसका फल दूसरे क्षण के पर्याय को मिलेगा, क्योंकि वहाँ उन सतत् परिवर्तनशील पर्यायों के मध्य कोई अनुस्यूत एक स्थायी तत्त्व (द्रव्य ) नहीं है, अतः यह कहा जा सकेगा कि जिसने किया था उसे फल नहीं Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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