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________________ आत्मा की अमरता ८. अनित्य-आत्मवाद की स्थिति में नैतिक साधना का कोई अर्थ नहीं। नैतिक साधना का आदर्श जिस परमार्थ की उपलब्धि है, उसके लिए अनित्य आत्मवाद में कोई स्थान नहीं। इन कठिनाइयों के कारण अनित्य आत्मवाद का नैतिकता में कोई स्थान नहीं हो सकता। पाश्चात्य चिन्तक कांट ने भी व्यावहारिक बुद्धि की अपेक्षा से नैतिक जीवन के लिए आत्मा की अमरता के विचार का समर्थन किया है । उनके अनुसार, प्रथमतः शुभाशुभ कर्मों का फल मिलना आवश्यक है और चूँकि वह इस जन्म में ही पूरी तरह से सम्पन्न नहीं हो पाता, अतः वह अगले जन्म की अनिवार्यता को सूचित करता है। दूसरे, नैतिक विकास की दृष्टि से भी आत्मा की अमरता आवश्यक है । कांट लिखते हैं कि संसार में निःश्रेयस् की उपलब्धि नीति-निधार्य इच्छा का आवश्यक विषय है, किन्तु इस इच्छा में नैतिक नियम से मन की पूर्ण अनुरूपता निःश्रेयस् की सबसे बड़ी शर्त है। इस अनुरूपता को कोई भी विवेकशील मनुष्य जीवन भर में भी नहीं प्राप्त कर सकता। यह अनन्त प्रगति केवल इस मान्यता पर सम्भव है कि मनुष्य के व्यक्तित्व और अस्तित्व की स्थिरता अनन्त है अर्थात् आत्मा अमर है। निःश्रेयस् की सिद्धि इस प्रकार आत्मा की अमरता की मान्यता पर निर्भर है। अस्तु, आत्मा की अमरता नैतिक नियम से अनिवार्यतः सम्बद्ध होने के कारण नैतिकता की एक मान्यता है।' जैन दर्शन ने भी मनोवैज्ञानिक एवं नैतिक आधारों पर आत्मा की अनित्यता का खण्डन और नित्यता का प्रतिपादन किया है। मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी आत्मा यदि अनित्य हो, तो स्मृति, प्रत्यभिज्ञा आदि सम्भव नहीं। साथ ही, यह भी बोध नहीं हो सकता कि मैं वही हूँ जो कभी बच्चा था और आज बड़ा हो गया हूँ। नैतिक दृष्टि से प्रथमतः यदि आत्मा नित्य न हो तो नैतिक व्यवस्था टिक नहीं सकती। कृतप्रणाश और अकृताभ्युपगम के दोष होंगे। अर्थात् कृतकर्मों का फल नहीं मिल सकेगा और अकृतकर्मों का फल भोगना होगा और मोक्ष (भवप्रमोक्ष ) का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा, क्योंकि कोई स्थायी जीव है ही नहीं, तो मोक्ष फिर किसका हो सकता है ? इस प्रकार नैतिक दृष्टि से आत्मा की नित्यता की मान्यता अपेक्षित है। ६२. नित्य-आत्मवाद नित्य-आत्मवाद के अनुसार आत्मा अनादि एवं शाश्वत है। नैतिक दृष्टि से नित्यआत्मवाद शुभाशुभ कृत्यों के फल के लिए मरणोत्तर जीवन को स्वीकार करता है। यद्यपि मरणोत्तर जीवन की धारणा में जहाँ भारतीय विचारक पुनर्जन्म को स्वीकार कर नैतिक विकास के लिए विभिन्न अवसरों की सम्भावना को मानते हैं, वहीं ईसाई १. नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ५०-५१. २. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, १८.. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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