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________________ २३६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन एकान्त अनित्य आत्मवाद की नैतिक समीक्षा . नैतिक दर्शन की दष्टि से तर्क की कसौटी पर अनित्य आत्मवाद के प्रति निम्न आक्षेप प्रस्तुत किये जा सकते हैं १. अनेक अशुभ कृत्यों का फल इस जीवन में नहीं मिल पाता है। यदि आत्मा देह के साथ नष्ट हो जाता है तो फिर अवशेष कृत्यों का फल मिलना सम्भव नहीं होगा। यदि सभी शुभाशुभ कृत्यों का फल नहीं मिल पाता है तो नैतिक अव्यवस्था उत्पन्न होगी। दूसरे, यदि शुभाशुभ की फलप्राप्ति का आकर्षण और भय सामान्य व्यक्ति को नहीं हो तो वह न तो शुभाचरण की ओर प्रेरित होगा, न अशुभाचरण से विमुख होगा। सम्पूर्ण शुभाशुभ कर्मों का फल प्राप्त होता है, कर्मवाद के इस सिद्धान्त को लक्ष्य में रखकर हमें आत्मा की नित्यता को स्वीकार करना होगा, क्योंकि अनित्य आत्मवाद की धारणा नैतिक दृष्टि से उचित नहीं बैठती है। उसके आधार पर कर्मविपाक एवं कर्मफल के सिद्धान्त को नहीं समझाया जा सकता। - २. वासनाओं और कर्तव्य के संघर्ष पर विजय प्राप्त करना ही नैतिकता है। परन्तु यह कार्य इतना कठिन है कि एक सीमित जीवन में उसे पूर्ण करना सम्भव नहीं है । अनित्य आत्मवाद को मानने पर दूसरे जीवन की सम्भावना ही नहीं रहेगी और नैतिकता के ध्येय को प्राप्त नहीं किया जा सकेगा। ३. संसार में अनेक व्यक्तियों को जन्म से ही मानसिक, शारीरिक एवं भौतिक उपलब्धियाँ एवं विकास के अवसर प्राप्त होते हैं, जब कि अनेकों को प्रयास करने पर भी सफलता नहीं मिल पाती। यह सब उपलब्धि या अनुपलब्धि मात्र वर्तमान जीवन का तो कारण नहीं हो सकती। यदि यह अकारण है, तो जगत् में कारण नियम की सार्वभौमिकता नहीं होगी और यदि सकारण है तो देहात्मवाद अथवा अनित्यात्मवाद के आधार पर उसका कारण नहीं समझाया जा सकता। ४. देहात्मवाद मानने पर शरीर की सभी उपाधियाँ आत्मा की उपाधियाँ होंगी और तब शारीरिक वासनाओं की पूर्ति को ही नैतिक मानना पड़ेगा तथा किसी भी उच्च नैतिक सिद्धान्त की स्थापना सम्भव नहीं होगी। ५. शरीर ही आत्मा है, ऐसा मानने पर शारीरिक शक्तियां ही व्यवहार को प्रेरक होंगी और नैतिकता में नियतिवाद आ जायेगा, स्वतन्त्र चयन का अभाव रहेगा और आध्यात्मिक मूल्यों का कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं रहेगा। ६. अनित्य आत्मवाद में जीव की उत्पत्ति माननी होगी । और जहाँ जीव की उत्पत्ति मानी जाती है वहाँ न तो बन्धन का कोई समचित कारण होता है और न मुक्ति का कोई अर्थ । अतः अनित्यात्मवाद में नैतिक दृष्टि से बन्धन और मुक्ति की कोई व्याख्या सम्भव नहीं। ७. अनित्य आत्मवाद की धारणा में पुण्यसंचय तथा परोपकार, दान आदि नैतिक आदेशों के परिपालन के प्रति कोई आकर्षण नहीं रहता है। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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