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आत्मा की अमरता
आत्मा की अमरता का प्रश्न नैतिकता की दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । पाश्चात्य विचारक कांट आत्मा की अमरता को नैतिक जीवन की संगत व्याख्या के लिए आवश्यक मानते हैं। भारतीय आचारदर्शनों के प्राचीन युग में आत्मा की अमरता का सिद्धान्त विवाद का विषय रहा है । उस युग में यह प्रश्न आत्मा की नित्यता एवं अनित्यता के रूप में अथवा शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के रूप में बहुचित रहा है। वस्तुतः आत्म-अस्तित्व को लेकर दार्शनिकों में इतना विवाद नहीं है, विवाद का विषय है-आत्मा की नित्यता और अनित्यता। यह विषय तत्त्वज्ञान की अपेक्षा भी नैतिक दर्शन से अधिक सम्बन्धित है । जैन विचारकों ने नैतिक व्यवस्था को प्रमुख मानकर उसके आधार पर ही आत्मा की नित्यता और अनित्यता की समस्या का हल खोजने की कोशिश की। अतः यह देखना भी उपयोगी होगा कि आत्मा को नित्य अथवा अनित्य मानने पर नैतिक दृष्टि से कौन-सी कठिनाइयाँ उत्पन्न होती हैं। ६१. अनित्य आत्मवाद
अनित्य आत्मवाद को भूतात्मवाद, देहात्मवाद और उच्छेदवाद भी कहा जाता है । चार्वाक दर्शन और अजितकेशकम्बल इस सिद्धान्त का प्रतिपादन करते हैं । इनके अनुसार आत्मा स्वतन्त्र तत्त्व नहीं है, वरन् उसकी उत्पत्ति भूतों के योग से होती है । सूत्रकृतांग में इस सिद्धान्त का उल्लेख इस रूप में मिलता है कि 'कुछ लोगों के अनुसार पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांच महाभूत हैं। इन पंच महाभूतों के योग से आत्मा उत्पन्न होती है और इनका विनाश हो जाने पर नष्ट हो जाती है। उत्तराध्ययन में यही बात इन शब्दों में है, 'शरीर में जीव स्वतः उत्पन्न होता है और शरीर नष्ट हो जाने पर नष्ट हो जाता है, बाद में नहीं रहता है ।२ बौद्धागमों में प्रस्तुत अजितकेशकम्बल की विचारणा के अनुसार भी आदमी चार महाभूतों का बना है। जब मरता है ( शरीर की ) पृथ्वी-पृथ्वी में, पानी-पानी में, अग्नि-अग्नि में और वायुवायु में मिल जाते हैं-भूर्ख हो चाहे पण्डित, शरीर छोड़ने पर सभी उच्छिन्न हो जाते हैं।
१. सत्रकृतांग, १११:७-८. २. उत्तराध्ययन, १४।१८. ३. दीघनिकाय, सामण्णफलसुत्त.
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