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आत्मा की अमरता
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मिला और जिसने नहीं किया था उसे मिला, अर्थात् नैतिक कर्मसिद्धान्त की दृष्टि से अकृतागम और कृतप्रणाश का दोष होगा । अतः आत्मा को नित्य मानकर भी सतत परिवर्तनशील ( अनित्य ) माना जाये तो उसमें शुभाशुभ आदि विभिन्न भावों की स्थिति मानने के साथ ही उसके फलों का भवान्तर में भोग भी सम्भव हो सकेगा । इस प्रकार जैन दर्शन सापेक्ष रूप से आत्मा को नित्य और अनित्य दोनों स्वीकार करता है ।
उत्तराध्ययन सूत्र में कहा गया है कि आत्मा अमूर्त होने के कारण नित्य है । र भगवतीसूत्र में भी जीव को अनादि, अनिधन, अविनाशी, अक्षय, ध्रुव और नित्य कहा गया है । 3 लेकिन इन सब स्थानों पर नित्यता का अर्थ परिणामी नित्यता ही समझना चाहिए । भगवती सूत्र एवं विशेषावश्यकभाष्य में इस बात को स्पष्ट कर दिया गया है । भगवती सूत्र में महावीर ने गौतम के प्रश्न का उत्तर देते हुए आत्मा को शाश्वत और अशाश्वत दोनों कहा है ।
"भगवन् ! जीव शाश्वत है या अशाश्वत ?”
" गौतम ! जीव शाश्वत ( नित्य ) भी है और अशाश्वत ( अनित्य ) भी ।" "भगवन् ! यह कैसे कहा गया कि जीव नित्य भी है, अनित्य भी ?" " गौतम ! द्रव्य की अपेक्षा से नित्य है, भाव की अपेक्षा से अनित्य । ४
आत्मा द्रव्य ( सत्ता ) की अपेक्षा से नित्य है अर्थात् आत्मा न तो कभी अनात्म ( जड़ ) से उत्पन्न होता है और न किसी भी अवस्था में अपने चेतना लक्षण को छोड़कर जड़ बनता है । इसी दृष्टि से उसे नित्य कहा जाता है । लेकिन आत्मा की मानसिक अवस्थाएँ परिवर्तित होती रहती हैं, अतः इस अपेक्षा से उसे अनित्य कहा गया है । आधुनिक दर्शन की भाषा में जैन दर्शन के अनुसार तात्त्विक आत्मा नित्य है और अनुभवाधारित आत्मा अनित्य है जिस प्रकार स्वर्णाभूषण स्वर्ण की दृष्टि से नित्य और आभूषण की दृष्टि से अनित्य है, उसी प्रकार आत्मा आत्मतत्त्व की दृष्टि से नित्य और विचारों और भावों की दृष्टि से अनित्य है ।
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जमाली के साथ हुए प्रश्नोत्तर में महावीर ने अपने इस दृष्टिकोण को स्पष्ट कर दिया है कि वे किस अपेक्षा से जीव को नित्य मानते हैं और किस अपेक्षा से अनित्य । महावोर कहते हैं, 'हे जमाली, जीव शाश्वत है । तीनों कालों में ऐसा कोई समय नहीं है जब यह जीव ( आत्मा ) नहीं था, नहीं है, अथवा नहीं होगा । इसी अपेक्षा से यह जीवात्मा नित्य, ध्रुव, शाश्वत, अक्षय और अव्यय है । हे जमाली, जीव अशाश्वत है, क्योंकि नारक मरकर तिर्यंच होता है, तियंच मरकर मनुष्य होता है, मनुष्य मरकर देव होता है । इस प्रकार इन नानावस्थाओं को प्राप्त करने के कारण उसे
१. वीतरागस्तोत्र, ८२-३.
२. उत्तराध्ययन, १४।१६, ३. भगवतीसूत्र, ह|६|३ | ८७. ४. वही, ७ २ २७३.
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