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________________ आत्मा का स्वरूप और नैतिकता में अनेक चित्तधाराएँ हैं। प्रत्येक व्यक्तित्व एक स्वतन्त्र चित्तप्रवाह है । 'क' क, कर क क के रूप में एक चित्तप्रवाह है तो 'ख' ख, ख२ ख ख के रूप में दूसरा चित्तप्रवाह है । जगत् का प्रत्येक प्राणी एक ऐसा ही चित्तप्रवाह है। जैन दर्शन जिन्हें जीव की पर्याय अवस्थाओं की धारा कहता है, बौद्ध दर्शन उसे चित्तप्रवाह कहता है। जिस प्रकार जैन दर्शन में प्रत्येक जीव अलग है, उसी प्रकार बौद्ध दर्शन में प्रत्येक चित्तप्रवाह अलग है । जैसे बौद्ध दर्शन के विज्ञानवाद में आलयविज्ञान है वैसे जैन दर्शन में आत्मद्रव्य है; यद्यपि इन सबमें रहे हुए तात्त्विक अन्तर को विस्मृत नहीं किया जा सकता। गीता का दृष्टिकोण गीता में जीवात्माओं की अनेकता स्वीकृत है, लेकिन उन्हें परमात्मा का अंश माना गया है। इस अर्थ में तात्त्विक आत्मा को एक ही माना है ।२ फिर भी साधारण अर्थ में जीवात्माओं की अनेकता और उनके स्वतन्त्र व्यक्तित्वों की धारणा गीता में स्वीकृत है। श्रीकृष्ण स्पष्ट कहते हैं कि वास्तव में न तो ऐसा ही है कि मैं किसी काल में नहीं था अथवा तू नहीं था अथवा ये सभी राजा लोग नहीं थे, और न ऐसा ही है कि इससे आगे हम सब नहीं रहेंगे। इससे स्पष्टतया यह सिद्ध हो जाता है कि गीता अनेक स्वतन्त्र व्यक्तित्वों को स्वीकार करती है। सांख्य दार्शनिकों ने भी आत्मा की अनेकता को स्वीकार किया है। उन्होंने अनेकता के लिए तीन तर्क दिये हैं-(१) जन्म, मृत्यु, इन्द्रियों एवं शरीरों की विभिन्नता (२) प्रत्येक व्यक्ति की भिन्न-भिन्न प्रवृत्तियाँ ( क्रियाकलाप ) और ( ३ ) व्यक्तियों के स्वभावों की भिन्नता जो उनमें सत्त्व, रज और तम की असमानता के कारण होती है। भारतीय दर्शनों में केवल अद्वैत वेदान्त तथा चार्वाक दर्शन को छोड़कर सभी ने प्रत्येक प्राणी की आत्मा की स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार किया है। वस्तुतः नैतिक जीवन के लिए व्यक्तित्व की स्वतन्त्र सत्ता आवश्यक है। हाफडिंग लिखते हैं कि नैतिक जीवन व्यक्तिगत जीवन है। नैतिक आदर्श की प्राप्ति व्यक्ति अपने व्यक्तिगत जीवन में करता है । अगर व्यक्ति का या उसकी नैतिक आत्मा का परमात्मा में विलय हो जाय तो उसके नैतिक जीवन का अन्त हो जायेगा। नैतिक जीवन हमेशा व्यक्तिगत होता है। उसका न प्रकृति में विलय हो सकता है और न परमात्मा में। इस प्रकार नैतिक जीवन की व्याख्या के लिए अनेक आत्माओं ( व्यक्तित्वों) की धारणा ही एक तर्कसंगत सिद्धान्त हो सकता है। १. गोता, १५।७. २. वही, ६६,१३१३०-३१. ३. वही, २।१२. ४. सांख्यकारिका, १८. ५. पश्चि मी दर्शन, पृ० २१६. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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