SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 273
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ २२८ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन अस्तित्व रखते हुए उस जलराशि से अभिन्न ही हैं। उसी प्रकार अनन्त चेतन आत्माएँ अपना स्वतन्त्र अस्तित्व रखते हुए भी अपने चेतना स्वभाव के कारण एक चेतन आत्मद्रव्य ही हैं। . महावीर ने इस प्रश्न का समाधान बड़े सुन्दर ढंग से टोकाकारों के पहले ही कर दिया था। वे सोमिल नामक ब्राह्मण को अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करते हुए कहते हैं, 'हे सोमिल । द्रव्यदृष्टि से मैं एक हूँ, ज्ञान और दर्शन रूप दो पर्यायों की प्रधानता से मैं दो हूँ। कभी न्यूनाधिक नहीं होनेवाले आत्मप्रदेशों की दृष्टि से मैं अक्षय हूँ, अव्यय हूँ, अवस्थित हूँ। तीनों कालों में बदलते रहनेवाले उपयोगस्वभाव को दृष्टि से मैं अनेक हूँ।२ इस प्रकार महावीर जहाँ एक ओर द्रव्यदृष्टि ( Substancial view ) से आत्मा के एकत्व का प्रतिपादन करते हैं, वहीं दूसरी ओर पर्यायाथिक दृष्टि से एक ही जीवात्मा में चेतन पर्यायों के प्रवाह के रूप से अनेक व्यक्तित्वों को संकल्पना को भी स्वीकार कर शंकर के अद्वैतवाद और बौद्ध क्षणिक आत्मवाद की खाई को पाटने की कोशिश करते हैं। इस प्रकार जैन विचारक आत्माओं में गणात्मक अन्तर नहीं मानते हैं । लेकिन विचार की दिशा में केवल सामान्य दष्टि से काम नहीं चलता, विशेष दष्टि का भी अपना स्थान है। सामान्य और विशेष के रूप में विचार की दो दष्टियाँ हैं और दोनों का अपना महत्त्व है । महासागर की जलराशि सामान्य दृष्टि से एक है, लेकिन विशेष दृष्टि से वही जलराशि अनेक जल-बिन्दुओं का समूह प्रतीत होती है। यही बात आत्मा के विषय में है । चेतना पर्यायों की विशेष दष्टि से आत्माएँ अनेक है और चेतना द्रव्य की दृष्टि से आत्मा एक है। जैन दर्शन के अनुसार आत्म द्रव्य एक प्रकार का है, लेकिन उसमें अनन्त वैयक्तिक आत्माओं की सत्ता है। इतना ही नहीं, प्रत्येक वैयक्तिक आत्मा भी अपनी परिवर्तनशील चैत्तसिक अवस्थाओं के आधार पर स्वयं भी एक स्थिर इकाई न होकर प्रवाहशील इकाई है। जैन दर्शन यह मानता है कि आत्मा का चरित्र या व्यक्तित्व परिवर्तनशील है। वह देशकालगत परिस्थितियों में बदलता रहता है, फिर भी वह वही रहता है । हमारे में भी अनेक व्यक्तित्व बनते और बिगड़ते रहते हैं । फिर भी वे हमारे ही अंग हैं, इस आधार पर हम उनके लिए उत्तरदायी बने रहते हैं । इस प्रकार जैन दर्शन अभेद में भेद, एकत्व में अनेकत्व को धारणा को स्थान देकर नैतिकता के लिए एक ठोस आधार प्रस्तुत करता है । बौद्ध दृष्टिकोण बौद्ध दर्शन अनेक चित्तप्रवाहों को स्वीकार करता है । वह मानता है कि इस जगत् १. समवायांगटीका, १११. २. भगवतीसूत्र, १५८।१०. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy