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________________ २२६ जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शना का तुलनात्मक अध्ययन व्याप्त कर सकता है। जैन दर्शन आत्मा में संकोच-विस्तार को स्वीकार करता है और इस आधार पर आत्मा को स्वदेह-परिमाण मानता है। जैसे दीपक का प्रकाश छोटे कमरे में रहने पर छोटे कमरे को और बड़े कमरे में रहने पर बड़े कमरे को प्रकाशित करता है वैसे ही आत्मा भी जिस देह में रहता है उसे चैतन्याभिभूत कर देता है। आत्मा के विभुत्व की नेतिक समीक्षा १. यदि आत्मा विभु ( सर्वव्यापक ) है तो वह दूसरे शरीरों में भी होगा, फिर उन शरीरों के कर्मों के लिए उत्तरदायी होगा । यदि यह माना जाये कि आत्मा दूसरे शरीरों में नहीं है, तो फिर वह सर्वव्यापक नहीं होगा । २. यदि आत्मा विभु है तो दूसरे शरीरों में होनेवाले सुख-दुःख के भोग से कैसे बच सकेगा? ३. विभु आत्मा के सिद्धान्त में कौन आत्मा किस शरीर का नियामक है, यह बताना कठिन है। वस्तुतः नैतिक जीवन के लिए प्रत्येक शरीर में एक आत्मा का सिद्धान्त ही संगत हो सकता है, ताकि उस शरीर के कर्मों के आधार पर उसे उत्तरदायी ठहराया जा सके । ४. आत्मा को सर्वव्यापकता का सिद्धान्त अनेकात्मवाद के साथ कथमपि संगत नहीं हो सकता। दूसरी ओर अनेकात्मवाद के अभाव मे नैतिक जीवन की संगत व्याख्या सम्भव नहीं। यद्यपि गीता परमात्मा का विभु मानती है, लेकिन उसे जीवात्मा के रूप में सम्पूर्ण शरीर में स्थित तथा एक शरीर से दूसरे शरीर में संक्रमण करनेवाला भी मानती है । $११. आत्माएं अनेक हैं आत्मा एक है या अनेक-यह दार्शनिक दृष्टि से विवाद का विषय का रहा है । जैन दर्शन के अनुसार आत्माएँ अनेक हैं और प्रत्येक शरीर की आत्मा भिन्न है । यदि आत्मा को एक माना जाता है तो नैतिक दृष्टि से अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं । एकात्मवाद को नैतिक समीक्षा १. आत्मा को एक मानने पर सभी जीवों की मुक्ति और बन्धन एक साथ होंगे। इतना ही नहीं, सभी शरीरधारियों के नैतिक विकास एवं पतन की विभिन्न अवस्थाएं भी युगपद् होगी। लेकिन ऐसा तो दिखता नहीं। नैतिक स्तर भी सब प्राणियों का. १. क्रमशः निगोद एवं केवलीसमुद्घात की अवस्था में. २. गीता, २२४. ३. वही, १३३३२. .. ४. वही, १५४८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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