SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 270
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का स्वरूप और नैतिकता २२५ के संयोग से कर्तृत्व का आरोपण हो सकता है । तुलनात्मक दृष्टि से देखा जाय तो गीता का दृष्टिकोण आचार्य कुन्दकुन्द के दृष्टिकोण के अत्यधिक निकट प्रतीत होता है । " आत्मा भोक्ता है। यदि नैतिक जीवन के लिए आत्मा को कर्ता मानना आवश्यक है तो उसे भोक्ता भी मानना पड़ेगा। क्योंकि जो कर्मों का कर्ता है उसे ही उनके फलों का भोग भी करना चाहिए | जैसे आत्मा का कर्तृत्व कर्मपुद्गलों के निमित्त से सम्भव है, वैसे ही आत्मा का भोक्तृत्व भी कर्मपुद्गलों के निमित्त से ही सम्भव है । कर्तृत्व और भोक्तृत्व, दोनों ही शरीरयुक्त बद्धात्मा में पाये जाते हैं, मुक्तात्मा या शुद्धात्मा में नहीं । भोक्तृत्व वेदनीय कर्म के कारण ही सम्भव है । जैन दर्शन आत्मा का भोक्तृत्व भी सापेक्ष दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा में स्वीकार करता है । १. व्यावहारिक दृष्टि से शरीरयुक्त बद्धात्मा भोक्ता है । २. अशुद्ध निश्चयनय या पर्यायदृष्टि से आत्मा मानसिक अनुभूतियों का वेदक है । ३. परमार्थदृष्टि से आत्मा भोक्ता और वेदक नहीं, मात्र द्रष्टा या साक्षी - स्वरूप है | २ नैतिक दृष्टि से भोक्तृत्व कर्म और उसके प्रतिफल के संयोग के लिए आवश्यक है । जो कर्ता है, वह अनिवार्य रूप से उनके फलों का भोक्ता भी है अन्यथा कर्म और उसके फलभोग में अनिवार्य सम्बन्ध सिद्ध नहीं हो सकेगा । ऐसी स्थिति में नैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं रह जायेगा । अतः यह मानना होगा कि आत्मा भोक्ता है, लेकिन आत्मा का भोक्ता होना बद्धात्मा या सशरीर आत्मा के लिए ही समुचित है । मुक्तात्मा भोक्ता नहीं है, वह तो मात्र साक्षीस्वरूप या द्रष्टा होता है। गीता और बौद्ध दर्शन भी सशरीर जीवात्मा में भोक्तृत्व को स्वीकार करते हैं । $ १०. आत्मा स्वदेह परिमाण है यद्यपि जैन विचारणा में आत्माओं को रूप, रस, वर्ण, गन्ध, स्पर्श आदि से विवर्जित कहा गया है, तथापि आत्मा को शरीराकार स्वीकार किया गया है । आत्मा के आकार के सम्बन्ध में प्रमुख रूप से दो दृष्टियाँ हैं : एक के अनुसार आत्मा विभु ( सर्वव्यापी ) है, दूसरी के अनुसार अणु है । सांख्य, न्याय और अद्वैत वेदान्त आत्मा को विभु मानते हैं और रामानुज अणु मानते हैं । जैन दर्शन को इस सम्बन्ध में मध्यस्थ दृष्टि है । उसके अनुसार आत्मा अणु भी है और विभु भी । वह सूक्ष्म इतना है कि एक आकाश प्रदेश के अनन्तवें भाग के बराबर है और विभु है तो इतना है कि समग्र लोक को १. समयसार ११२; गीता, ३।२७-२८. २. समयसार, ८१-९२. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy