________________
आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
२२३
एकान्त अकर्तृत्ववाद के दोष
१. यदि आत्मा अकर्ता है तो उसे शुभाशुभ कर्मों के लिए उत्तरदायी भी नहीं माना जा सकेगा।
२. यदि आत्मा अकर्ता है तो शुभाशुभ कर्मों का कर्ता भी नहीं होगा और शुभाशुभ का कर्ता नहीं होने से वह बन्धन में नहीं आयेगा।
३. उत्तरदायित्व के अभाव में नैतिकता का प्रत्यय अर्थहीन होता है, यदि आत्मा को अकर्ता माना जाए तो उत्तरदायित्व की व्याख्या सम्भव नहीं है।
४. नैतिक आदेश किसी कर्ता की अपेक्षा करते हैं। यदि आत्मा अकर्ता है तो नैतिक आदेश किसके लिए है ?
५. मक्ति यदि नैतिक आचरण का परिणाम है तो अकर्ता आत्मा के लिए उसका क्या अर्थ रहेगा? निष्कर्ष
आत्मकर्तृत्ववाद और आत्म-अकर्तृत्ववाद के विषय में आचार्य कुन्दकुन्द का दृष्टिकोण भी एकांगी नहीं, क्योंकि ऐकान्तिक मान्यताओं से इसका सम्यक् निराकरण नहीं हो सकता । आचार्य ने समयसार में लगभग ७५ गाथाओं में इस समस्या की गहन समीक्षा प्रस्तुत की है।' आचार्य भी कर्तृत्व और अकर्तृत्व के विवाद का समाधान सापेक्ष दृष्टि के आधार पर ही करते हैं, उनके सारे निर्णयों को निम्न तीन दृष्टिकोणों में अभिव्यक्त किया जा सकता है।
१. व्यवहारदृष्टि की अपेक्षा से आत्मा शरीर के सहयोग से ( क्रियाओं का ) कर्ता है। जब तक आत्मा कर्म-शरीर से युक्त है, वह कर्मों का कर्ता है और उस स्थिति तक शुभाशुभ कर्मों के लिए उत्तरदायी भी है।
२. पर्यायार्थिक निश्चयदृष्टि (अशुद्धनिश्चयनय ) के अनुसार आत्मा जड़ कर्मों का कर्ता नहीं है, वरन् मात्र कर्म पुद्गल के निमित्त से अपने चैत्तसिक भावों ( अध्यवसाय ) का कर्ता है।
३. शुद्धनिश्चयनय या द्रव्याथिक ( परमार्थ ) दृष्टि से आत्मा अकर्ता है । बौद्ध दृष्टिकोण की समीक्षा
बौद्ध दर्शन अनात्मवादी है। उसमें आत्मकर्तृत्ववाद की समस्या ही नहीं है। वह चेतना के कर्तृत्व को स्वीकार करता है एवं चेतना या मनोवृत्ति के आधार पर ही
१. समयसार, कर्तृकर्माधिकार, ७०-१४४. २. वही, ८४. ३. वही, ८१-८३. ४. वही, ६२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org