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________________ २२२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन में आत्मा को कर्मों का कर्ता माना जाता है, लेकिन जैनाचार्य कुन्दकुन्द ने स्वयं ही प्रश्न किया है कि कर्म तो जड़ है और आत्मा चेतन, दोनों भिन्न हैं; फिर आत्मा को जड़ कर्मों का कर्ता कैसे माना जाय ? आत्मा जड़ में नहीं और जड़ आत्मा में नहीं, फिर वह चेतन आत्मा जड़ कर्मों का कर्ता कैसे हो सकता है ? तप्त लौह- पिण्ड में अग्नि रहते हुए भी वह उसका कर्ता या कारण नहीं हो सकती, वस्तुतः तो वहाँ भी लौह लोह में है और अग्नि अग्नि में ।' ३. आत्मा को स्वलक्षण की दृष्टि से कर्ता मानने पर मुक्ति की सम्भावना ही समाप्त हो जायेगी, क्योंकि यदि कर्तृत्व स्वलक्षण है तो मोक्षदशा में भी रहेगा और इसके कारण उसे बन्धन में आने की सम्भावना बनी रहेगी । आत्म-कर्तृत्व के सम्बन्ध में कुन्दकुन्द के विचार इन आक्षेपों को दृष्टि में रखते हुए महावीर के परवर्ती कुछ जैन विचारकों ने भी जब आत्मकर्तृत्व की इस समस्या की गहन समीक्षा की तो उन्होंने भी यह कह दिया कि आत्मा कर्ता नहीं । आचार्य कुन्दकुन्द ने समयसार में एक गहन समीक्षा के पश्चात् स्पष्ट रूप में कह दिया कि जीव ( आत्मा ) अकर्ता है, गुण ही कर्मों के कर्ता हैं । 2 जो यह जानता है कि आत्मा ( कर्मों का ) कर्ता नहीं है, वही ( सच्चा ) ज्ञानी है | आत्मा को धर्म ( शुभ ) अथवा पाप ( अशुभ ) आदि के वैचारिक परिणामों का कर्ता कहा जाता है, लेकिन वह किसी भी प्रकार कर्ता नहीं होता है, जो इस प्रकार जानता है, वही ज्ञानी है । इस प्रकार आचार्य कुन्दकुन्द आत्म-कर्तृत्व की मान्यता का स्पष्ट निषेध करते हैं । लेकिन इसका अर्थ यह नहीं है कि यह विचारणा आचार्य की स्वयं की है और पूर्ववर्ती साहित्य में इसका कोई उल्लेख नहीं है । सर्वाधिक प्राचीन जैनागम आचारांगसूत्र में भी ऐसा संकेत मिलता है कि जो गुण ( इन्द्रियविषय ) है, ही बन्धन है । इस प्रकार यहाँ भी बन्धन अथवा कर्तृत्व का उत्तरदायित्व आत्मा पर नहीं, वरन् गुणों (इन्द्रियविषयों ) पर डाला गया है । पूर्ववर्ती बन्धन अपने विपाक में नया बन्धन अर्जित करता है और यह परम्परा चलती रहती है, आत्मा तो कहीं बीच में आता ही नहीं है । फिर उसे कर्ता कैसे माना जाये ? इस प्रकार जहाँ एक ओर अनेक जैनाचार्यों के आत्मा को कर्ता कहा, वहाँ कुन्दकुन्द ने उसके अकर्तृत्व पर बल दिया । इन परस्पर विरोधी दो दृष्टिकोणों का कथन हम एक ही आचारदर्शन में पाते हैं । लेकिन दोनों ही दृष्टिकोण सापेक्ष रूप में सत्य हैं, क्योंकि यदि आत्मा को एकान्तरूप से अकर्ता माना जाए तो भी नैतिक दृष्टि से कुछ समस्याएँ उत्पन्न हो जाती हैं । १. समयसार, १३० - १४०; समयसारटीका, कलश १६. २. वही, ११२. ३. वही, ७५. ४. जे गुणे से आवट्टे जे आवट्टे से गुणे । आचारांग, १२१२५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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