SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 266
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आत्मा का स्वरूप और नैतिकता है और अचित् अंश भी है । अतः प्रश्न यह है कि चित् एवं अचित् अंश में कौन नैतिक कर्मों का कर्ता एवं उत्तरदायी है ? इस प्रश्न का उत्तर तीन प्रकार से दिया गया। कुछ विचारकों ने अचित् अंश, अचेतन जड़-प्रकृति को कर्ता माना। सांख्य विचारकों ने बताया कि जड़-प्रकृति ही शुभाशुभ कर्मों की की है। वही नैतिक उत्तरदायित्व के आधार पर बन्धन में आती है और मुक्त होती है। शंकर ने इस कर्तृत्व को मायाधीन पाया और उसे एक भ्रान्ति माना। इस प्रकार सांख्य दर्शन एवं शंकर ने आत्मा को अकर्ता कहा, दूसरी ओर न्यायवैशेषिक आदि विचारकों ने आत्मा को कर्ता माना, लेकिन जैन विचारकों ने इन दोनों ऐकान्तिक मान्यताओं के मध्य का रास्ता चुना। जैन आचारग्रन्थों में यह वचन बहुतायत से उपलब्ध होते हैं कि आत्मा कर्ता है। उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि आत्मा हो सुखों और दुःखों का कर्ता और भोक्ता है। यह भी कहा गया है कि सिर काटनेवाला शत्रु भी उतना अपकार नहीं करता जितना दुराचरण में प्रवृत्त अपनी आत्मा करती है। यही नहीं, सूत्रकृतांग में आत्मा को अकर्ता माननेवाले लोगों की आलोचना करते हुए स्पष्ट रूप में कहा गया है-कुछ दूसरे ( लोग ) तो धृष्टतापूर्वक कहते हैं कि करना कराना आदि क्रिया आत्मा नहीं करता, वह तो अकर्ता है। इन वादियों को सत्य ज्ञान का पता नहीं और न उन्हें धर्म का ही भान है। उत्तराध्ययनसूत्र में शरीर को नाव और जीव को नाविक कहकर जीव पर नैतिक कर्मों का उत्तरदायित्व डाला गया है। लेकिन उक्त सन्दर्भो के आधार पर यह समझ लेना नितान्त भ्रमपूर्ण होगा कि जैन आचारदर्शन आत्मकर्तृत्ववाद को मानता है, क्योंकि ऐकान्तिक रूप में माना गया आत्मकर्तृत्ववाद भी नैतिक समीक्षा की कसौटी पर दोषपूर्ण उतरता है । एकान्त कर्तृत्ववाद के दोष १. यदि आत्मा को एकान्त रूप से कर्मों का कर्ता माना जाय, तो कर्तृत्व उसका स्वलक्षण होना चाहिए और ऐसी स्थिति में निर्वाणावस्था में भी उसमें कर्तृत्व रहेगा। यदि कर्तापन आत्मा का स्वलक्षण है तो वह कभी छूट नहीं सकता और जो छूट सकता है वह स्वलक्षण नहीं हो सकता। २. जिस प्रकार स्वर्ण स्वर्णाभूषण का कारण हो सकता है, रजताभूषण का नहीं; उसी प्रकार यदि आत्मा को कर्ता माना जाय तो वह मात्र चैत्तसिक अवस्थाओं का ही कर्ता सिद्ध हो सकता है, जड़ ( भौतिक ) कर्मों का कर्ता नहीं। जैन नैतिक विचारणा १. सांख्यकारिका, ५६-५७. २. वही, ६२. ३. उत्तराध्ययन, २०१३७, ४. वही, २०१४८. ५. सूत्रकृतांग, १११।१३-२१. ६. उत्तराध्ययन, २३।७३; तुलना कीजिए कठोपनिषद्, १।३।३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy