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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
प्रयास का कोई अर्थ नहीं । दूसरे, यदि आत्मा नित्य-मुक्त है तो भी मुक्ति का प्रयास निरर्थक ही है।
२. आत्मा को अविकारी मानने पर बन्धन का कारण समझाया नहीं जा सकता, क्योंकि आत्मा का बन्धन दूसरे के कारण नहीं हो सकता और आत्मा स्वयं अविकारी होने से अपने बन्धन का कारण नहीं हो सकता। अतः स्पष्ट है कि अपरिणामी आत्मबाद बन्धन की समुचित व्याख्या करने में समर्थ नहीं है।
३. नैतिक विकास और नैतिक पतन दोनों आत्म-परिणामवाद की अवस्था में ही सम्भव है । शुभत्व और अशुभत्व दोनों परिणामी आत्मा में ही घट सकते हैं।
४. मनौवैज्ञानिक दृष्टि से भी आत्मा को अपरिणामी मानने पर सुख-दुःखादि भावों को नहीं घटाया जा सकता।
आत्म-अपरिणामवाद की इन कठिनाइयों के कारण ही जैन विचारक आत्मा को परिणामी मानते हैं। जैन विचारकों ने यह माना है कि सत् उत्पादव्यय-ध्रौव्यात्मक है, अतः आत्मा भी उत्पाद-व्यय-ध्रौव्यात्मक है। इसी आधार पर आत्मा में पर्यायपरिवर्तन सम्भव है। आत्मा में तत्व-दृष्टि से ध्रौव्यता होते हुए भी पर्यायदृष्टि से उसमें परिवर्तन होते रहते हैं ।
बौद्ध दर्शन भी परिवर्तन ( परिणामीपन ) को स्वीकार करता है। उसके अनुसार तो चैत्तासक वृत्तियों या मानसिक अवस्थाओं से भिन्न कोई आत्मा नामक तत्व ही नहीं है । बुद्ध और महावीर दोनों ने ही तात्कालिक उन मान्यताओं का खण्डन किया जो आत्मा को अपरिणामी मानती थीं। रही गीता के दृष्टिकोण की बात, तो वह आत्म परिणामवाद को स्वीकार नहीं करती। वह आत्मा को कूटस्थ-नित्य मानती है । इस सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण मध्यस्थ है। जहाँ बौद्ध दर्शन उसे मात्र परिणामी (प्रतिक्षण परिवर्तनशील ) मानता है, वहाँ गीता उसे कूटस्थ-नित्य कहती है । जैन दर्शन अपनी समन्वयवादी पद्धति के अनुरूप उसे परिणामी नित्य कहता है ।
परिणामी आत्मवाद का प्रश्न आत्मा के कर्तृत्व से निकट रूप से सम्बन्धित है, अतः अब उसपर विचार करेंगे। ८. आत्मा कर्ता है
नैतिक दृष्टि से आत्मा ही नैतिक कर्मों का कर्ता है। लेकिन हमें यह विचार करना है कि यह आत्मा किस अर्थ में कर्ता है। पाश्चात्य नैतिक विचारणा में नैतिक अथवा अनैतिक कर्मों का कर्ता मनुष्य को मान लिया गया है, अत. वहाँ कर्तृत्व की समस्या विवाद का विषय नहीं रही है, लेकिन भारतीय परम्परा में यह प्रश्न महत्वपूर्ण रहा है । भारतीय विचारक इस सम्बन्ध में तो एकमत हैं कि मनुष्य नैतिक-अनैतिक कर्मों का कर्ता है। लेकिन भारतीय विचारक और गहराई में उतरे । उन्होंने बताया कि मनुष्य तो भौतिक शरीर और चेतन आत्मा के संयोग का परिणाम है, उसमें चित् अंश भी
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