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आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
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आत्मा को अपरिणामी मानते थे । आत्मा को अपरिणामी ( कूटस्थ ) मानने का तात्पर्य यह है कि आत्मा में कोई विकार, परिवर्तन या स्थित्यन्तर नहीं होता । पूर्णकाश्यप के सिद्धान्तों का वर्णन बौद्ध साहित्य में इस प्रकार मिलता है - 'अगर कोई क्रिया करे, कराये, काटे, कटवाये, कष्ट दे या दिलाये, चोरी करे, प्राणियों को मार डाले परदारागमन करे या असत्य बोले तो भी उसे पाप नहीं लगता । तीक्ष्ण धारवाले चक्र से यदि कोई इस संसार के प्राणियों के मांस का ढेर लगा है तो भी उसे कोई पाप नहीं, दोष नहीं होता । दान, धर्म और सत्य भाषण से कोई पुण्यप्राप्ति नहीं होती ।" "
इस धारणा को देखकर सहज ही शंका होती हैं कि इस प्रकार का उपदेश देनेवाला व्यक्ति कोर्ड यशस्वी लोक-सम्मानित व्यक्ति नहीं हो सकता वरन् कोई धूर्त होना चाहिए । लेकिन पूर्ण काश्यप एक लोकपूजित शास्ता थे, लतः यह निश्चित है कि यह नैतिक दृष्टिकोण उनका नहीं हो सकता । लेकिन यह उनके अक्रिय आत्मवाद का नैतिक फलित है जो उनके विरोधी दृष्टिकोण वाले लोगों के द्वारा प्रस्तुत किया गया है । फिर भी यह सत्य है कि पूर्णकाश्यप आत्मा को अपरिणामी मानते थे । उनकी उक्त मान्यता का भ्रान्त निष्कर्ष निकालकर उन्हें अनैतिक आचरण का समर्थक दर्शाया गया है । यह बता पाना तो बड़ा कठिन है कि सांख्य- परम्परा और पूर्णकाश्यप की यह परम्परा एक ही थी अथवा अलग-अलग । इनमें कौन पूर्ववर्ती थी इसका भी निश्चय नहीं किया जा सकता । यद्यपि धर्मानन्द कोसम्बी और राहुल सांकृत्यायन यह सिद्ध करते हैं कि पूर्णकाश्यप की इस परम्परा के आधार पर सांख्य दर्शन और गीता की विचारणा का विकास हुआ है । डा० राधाकृष्णन आदि पूर्णकाश्यप को सांख्य परम्परा का हो आचार्य मानते है 13 यहाँ तो हमारा तात्पर्य इतना ही है कि समालोच्य नैतिक विचारणाओं के विकास काल में यह धारणा भी बलवती थी कि आत्मा अपरिणामी है । सूत्रकृतांग में भी आत्मा के अक्रियावाद को माननेवालों का उल्लेख है । कहा गया हैं कि 'कुछ दूसरे घृष्टतापूर्वक कहते हैं कि करना - कराना आदि क्रिया आत्मा नहीं करता, वह तो अकर्ता है । ४
अपरिणामी आत्मवाद की नैतिक समीक्षा
१. आत्मा को अपरिणामी मानने की स्थिति में आत्मा के भावों में परिवर्तन मिथ्या होगा । यदि आत्मा के भावों में विकार और परिवर्तन की सम्भावना नहीं है, तो आत्मा को या तो नित्य-मुक्त मानना होगा या नित्य-बद्ध, और दोनों अवस्थाओं में नैतिक जीवन के लिए कोई स्थान नहीं रह जायेगा । नैतिक साधना बन्धन से मुक्ति का प्रयास है और यदि बन्धन नित्य है तो फिर मुक्ति के लिए १. मज्झिमनिकाय, चूलसारोपमसुत्त. २. भगवान बुद्ध, पृ० १८४. ३. वही.
४. सूत्रकृतांग, १११११३.
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