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जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
नैतिक जीवन को सच्चा अर्थ नहीं देते हैं । नैतिक बाध्यता या नैतिक आदेश को आन्तरिक होने के लिए संकल्प स्वातन्त्र्य और नैतिक उत्तरदायित्व के लिए आत्मा में आत्मनिर्णय की शक्ति आवश्यक है ।
इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन दर्शन में उपयोग ( चेतना ) लक्षण के अन्तगंत ज्ञानोपयोग के रूप में नैतिक विबेकक्षमता को, दर्शनोपयोग के रूप में मूल्यात्मक अनुभूति की क्षमता को तथा वीर्य अथवा संकल्प की दृष्टि से आत्मनिर्णय ( संकल्प ) की शक्ति को स्वीकार किया है। अनन्तचतुष्टय की दृष्टि से आत्मा की ये तीनों शक्तियाँ अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तवीर्य के अन्तर्गत आ जाती हैं । ये तीनों शक्तियाँ आत्मा में पूर्ण रूप में विद्यमान हैं, उसके स्वलक्षण हैं, यद्यपि हमारे सीमित व्यक्तित्वों में वे आवरित या कुण्ठित हैं । नैतिक जीवन का लक्ष्य इनको पूर्णता की 'दिशा में विकसित करना है ।
आनन्द
जैन दर्शन में आनन्द ( सौख्य ) को भी आत्मा का स्वलक्षण माना गया है । -यदि आनन्द आत्मा का स्वलक्षण नहीं माना जायेगा तो नैतिक आदर्श शुष्क हो जायेगा तथा नैतिक जीवन में कोई भावात्मक पक्ष नहीं रहेगा । आनन्द आत्मा का भावात्मक पक्ष है । यदि आनन्द को आत्मा का स्वलक्षण न मानकर आत्मा से बाह्य माना - जायेगा तो नैतिक जीवन का साध्य भी आत्मा से बाह्य होगा और नैतिकता आन्तरिक नहीं होकर बाह्य तथ्यों पर निर्भर होगी। यदि आनन्दक्षमता आत्मगत न होकर वस्तुगत होगी तो नैतिकता भौतिक सुखों की उपलब्धि पर निर्भर होगी । फिर अनुभवात्मक जीवन में भी हम देखते हैं कि आनन्द का प्रत्यय पूर्णतया बाह्य नहीं होता । वह वस्तुओं की अपेक्षा हमारी चेतना पर निर्भर होता है । अतः आनन्द को आत्मा का ही स्वलक्षण मानना होगा। जैन दर्शन का दृष्टिकोण तर्कसंगत है। भारतीय दर्शन में न्याय-वैशेषिक एवं सांख्य विचारणाएँ सौख्य या आनन्द को आत्मा का स्वलक्षण नहीं मानतीं । सांख्य के अनुसार आनन्द सत्त्वगुण का परिणाम है, अतः वह प्रकृति का हो गुण है, आत्मा का नहीं । न्याय-वैशेषिक दर्शन उसे चेतना पर निर्भर मानते हैं, चूंकि उनके अनुसार चेतना भी आत्मा का स्वलक्षण नहीं होकर आगन्तुक गुण हैं, अतः सुख भी आगन्तुक गुण है । इस सम्बन्ध में वेदान्त का दृष्टिकोण जैन दर्शन के निकट है । उसमें ब्रह्म को सत् और चित् के साथ-साथ आनन्दमय भी माना गया है ।
आत्मा के इन चार मूलभूत लक्षणों की चर्चा के उपरान्त हम जैन दर्शन में आत्मा सम्बन्धी अन्य मान्यताओं की चर्चा तथा उनकी नैतिक समीक्षा करेंगे ।
६७. आत्मा परिणामी है
जैन दर्शन आत्मा को परिणामी मानता है और सांख्य एवं शांकर वेदान्त आत्मा को अपरिणामी ( कूटस्थ ) मानते हैं । बुद्ध के समकालीन विचारक पूर्णकाश्यप भी
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