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आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
ज्ञान, ( ४ ) मनःपर्यायज्ञान और ( ५ ) केवलज्ञान । आधुनिक नैतिक शब्दावली में इन्हें क्रमश: ( १ ) अनुभवात्मकज्ञान, ( २ ) बौद्धिक या विमर्शमूलक ज्ञान, ( ३ ) अपरोक्ष ज्ञान या अन्तर्दृष्ट्यात्मकज्ञान, ( ४ ) आत्मचेतनता और ( ५ ) आत्मसाक्षात्कार कह सकते हैं । आधुनिक आचारदर्शन में भी ज्ञान के इन पाँच प्रकारों पर आधारित पाँच प्रकार के नैतिक दर्शन हैं - ( १ ) अनुभवात्मकज्ञान पर आधारित बेन्थम, मिल आदि के सुखवादी सिद्धान्त, ( २ ) बौद्धिक ज्ञान पर आर्धारित स्पीनोजा और कांट के बुद्धिमूलक सिद्धान्त, ( ३ ) अपरोक्षज्ञान या अन्तर्दृष्टि पर आधारित शैफ्टसुबरी, हचासन, मार्टिन्यू, कडवर्थ आदि का सहज ज्ञानवादी सिद्धान्त, ( ४ ) आत्मचेतनता पर आधारित वारनरफिटे का मानवतावादी सिद्धान्त तथा किर्केगार्ड का अस्तित्ववादी सिद्धान्त और ( ५ ) आत्मसाक्षात्कार पर आधरित ब्रेडले, ग्रान आदि के आत्मपूर्णतावादी सिद्धान्त । जैन विचारणा ज्ञान के इन पाँच प्रकारों को स्वीकार कर उपर्युक्त पाँच प्रकार के नैतिक सिद्धान्तों के समन्वय का अच्छा आधार प्रस्तुत करती है । ( ब ) दर्शनोपयोग
दशन ज्ञान की प्रथम भूमिका है, यह चेतना का अनुभूत्यात्मक पक्ष है । जैन दर्शन मे दर्शनापयाग चार प्रकार का है - ( १ ) चक्षुदर्शन, (२) अचक्षुदर्शन, ( ३ ) अवधि - दर्शन आर ( ४ ) केवलदर्शन । आधुनिक मनोविज्ञान की दृष्टि से इन्हें क्रमश: ( १ ) प्रत्यक्षीकरण, ( २ ) संवेदना, (३) अतीन्द्रिय- प्रत्यक्ष और ( ४ ) आत्मानुभूति कहा 'जा सकता है | अनुभूति या साक्षात्कार निष्ठा या श्रद्धा का आधार है । ज्ञान में सन्देह हो सकता है, लेकिन अनुभूति में सन्देह नहीं होता । यही कारण हैं कि आत्मा की यह अनुभूत्यात्मक क्षमता ( दर्शनोपयाग ) जैन नीतिशास्त्र में 'श्रद्धा' के अर्थ में रूढ़ हो गया । श्रद्धा के अर्थ म 'दर्शन' जैन आचारमीमांसा का आधार है । यदि आत्मा में अनुभूत्यात्मक क्षमता न होगी, तो नैतिक मूल्यों का बोध सम्भव नहीं होगा । नैतिक मूल्य बौद्धिक नहीं, अनुभूत्यात्मक हैं। बिना अनुभूत्यात्मक क्षमता के उनकी अनुभूति कंस होगा ? नतिक आदर्श का बोध इसी पर निर्भर है । आत्मा की इस क्षमता को दृष्टि या निष्ठा के रूप में भी देखा जा सकता है । साधना के क्षेत्र में इसकी अन्तिम परिणति निर्विकल्प समाधि ( शुक्लध्यान ) में आत्मसाक्षात्कार की अवस्था मानी गयी है ।
( स ) आत्म-निर्णय का शक्ति ( वीर्य )
चेतना ( उपयोग ) का तीसरा पक्ष संकल्पात्मक माना गया है । इसे आत्मनिर्णय को शक्ति भी कह सकते हैं । यह एक प्रकार से संकल्प शक्ति ( वीर्य ) है । यदि आत्मा में आत्मनिर्णय की क्षमता ( संकल्पस्वातन्त्र्य ) नहीं मानी जायेगी, तो नैतिक उत्तरदायित्व को व्याख्या सम्भव नहीं होगी । आत्मनिर्णय की शक्ति नैतिक जीवन के लिए आवश्यक है । उसके बिना नैतिक आदेश भी बाह्य हो जायेगा और बाह्य नैतिक आदेश या बाह्य नैतिक बाध्यता ( External Moral Sanction ).
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