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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्यबन
नैतिक साध्य का बोध नैतिक जीवन की प्रथम शर्त है, क्योंकि जबतक परमश्रेय का बोध नहीं होगा तबतक न तो शुभाशुभ और न औचित्य-अनौचित्य का विवेक होगा और न सम्यक् दिशा में नैतिक प्रगति ही सम्भव होगी। जहाँ तक नैतिक अथवा अनैतिक कहे जानेवाले आचरण का प्रश्न है, वह आचरण मात्र कर्ता की अपेक्षा नहीं करता, वरन् शुभाशुभ की विवेक-क्षमता-युक्त कर्ता की अपेक्षा करता है। क्योंकि जड पदार्थों की क्रियाओं के नैतिक अथवा अनैतिक होने के सम्बन्ध में कोई विचार नहीं करता । इतना ही नहीं, पाश्चात्य विचारकों को दृष्टि में तो शुभाशुभ विवेक की शक्ति के अभाव में भी किसी कर्ता के कर्म नैतिक अथवा अनैतिक नहीं माने जाते, जैसे बालक अथवा मनोविकृत का आचरण । यद्यपि जैन विचारणा इस सम्बन्ध में थोड़ी भिन्न दृष्टि रखती है। वह यह तो स्वीकार करती है कि चेतना के अभाव में जड पदार्थों की क्रियाएँ नैतिक या अनैतिक नहीं होती। वह पाश्चात्य विचारकों के साथ इस बात में भी सहमत है कि नैतिक विवेक शक्ति के वास्तविक अभाव में किसी के भी कर्मों को नैतिक अथवा अनैतिक नहीं माना जा सकता। लेकिन जैन विचारक यह मानते हैं कि सभी चैतन्य प्राणियों में मूलतः शुभाशुभ का विवेक करनेवाली शक्ति निहित है । आत्मा और विवेक अलग-अलग नहीं रहते-जहाँ चेतना या आत्मा है वहाँ विवेक है ही। . ऐसा कोई भी प्राणी नहीं जिसमें मूलतः नैतिक विवेक का अभाव हो। जैन विचारक कहते है कि विवेक-क्षमता ( Capacity ) तो सभी में है लेकिन विवेक योग्यता ( Ability ) सबमें नहीं है। नैतिक विवेक का अस्तित्व सभी में है, लेकिन उसका प्रकटन सभी में नहीं है। किसी प्राणी के कर्मों का नैतिकता या अनैतिकता की सीमा में आना विवेक-शक्ति के प्रकटन पर नहीं, वरन् उसके अस्तित्व पर निर्भर करता है । जैन दर्शन के अनुसार, आत्मा में निहित विवेक-शक्ति को प्रकट न करना स्वयं में ही सबसे बड़ी अनैतिकता है। इस प्रकार जहाँ पाश्चात्य विचारकों की दृष्टि में पागल. बालक आदि प्राणियों का व्यवहार नैतिकता की सीमा में नहीं आता, वहीं जैन विचारकों की दृष्टि में इन सबका व्यवहार नैतिकता की सीमा में आता है। नैतिक विवेक की क्षमता अनिवार्य रूप से नैतिक उत्तरदायित्व को ले आती है। यदि हमें यह बोध हो सकता है कि अमुक शुभ है और अमुक अशुभ है, तो हम शुभ का अनुसरण नहीं करने के लिए और अशुभ का अनुसरण करने के लिए उत्तरदायी ठहराये जा सकते हैं।
जैन विचारणा आत्मा में ज्ञान-क्षमता को स्वीकार कर नैतिक साध्य के बोध, नैतिक विवेक और नैतिक उत्तरदायित्व के प्रत्ययों को अपने आचारदर्शन में स्थान दे देती है। आत्मा अपनी इस सीमित क्षमता को नैतिक जीवन के माध्यम से विकसित करते हुए अन्त में उसे पूर्ण ज्ञान की योग्यता ( अनन्तज्ञान ) में बदल लेता है। ज्ञान के माध्यम से ही आत्मा का नैतिक विकास होता है और नैतिक विकास के द्वारा ज्ञान पूर्णता को प्राप्त करता है ।
ज्ञानोपयोग पाँच प्रकार का है-( १ ) मतिज्ञान, ( २ ) श्रुतज्ञान, ( ३ ) अवधि
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