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मात्मा का स्वरूप और नैतिकता
२१५ कि जैन दर्शन चेतना को आत्मा का स्व लक्षण मानता है, न्याय-वैशेषिक दर्शन के समान चेतना को आत्मा का आगन्तुक गुण नहीं मानता। इस सम्बन्ध में जैन दर्शन का विचार शंकर के अनुरूप है कि निर्वाण या मुक्ति की अवस्था में भी आत्मा चैतन्य ही रहता है । मुक्ति की अवस्था में उसकी चेतना-शक्ति अबाधित एवं पूर्ण होती है, और संसारावस्था में उसकी चेतना-शक्ति आवरित होती है, यद्यपि जीव की चेतना-शक्ति का पूर्ण आवरण कभी नहीं होता है। इसके विपरीत न्याय-वैशेषिक दर्शन मुक्तावस्था में आत्मा में चेतना का अभाव मानते हैं। यदि मुक्तावस्था में चेतना का सद्भाव नहीं माना जाता है तो मुक्ति का आदर्श अधिक आकर्षक नहीं रहता । इसलिए आलोचकों ने यहाँ तक कह दिया कि न्याय-वैशेषिक दर्शन को मुक्ति प्राप्त करने की अपेक्षा तो वृन्दावन में शृगाल-योनि में विचरण करना कहीं अधिक अच्छा है । हे गौतम, तुम्हारी यह पाषाणवत् मुक्ति तुम्हें ही मुबारक हो, तुम सचमुच ही गौतम (बल) हो ।'
लेकिन जहाँ तक नैतिक जीवन-क्षेत्र की बात है, वहाँ तक सभी आत्मा में चेतना के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। सांख्य, योग और वेदान्त दर्शन इसे स्वलक्षण की अपेक्षा से स्वीकार करते हैं और न्याय-वैशेषिक इसे आगन्तुक लक्षण की अपेक्षा से स्वीकार करते हैं। इतना ही नहीं, देहात्मवादी चार्वाक और अनात्मवादी बौद्ध भी व्यक्तित्व म चेतना को स्वीकार करते हैं। वस्तुतः चेतना नैतिक जीवन की अनिवार्य स्थिति है, नैतिक उत्तरदायित्व और नैतिक विवेक चेतना के अभाव में सम्भव नहीं है । जैन दर्शन में चेतना के स्थान पर 'उपयोग' शब्द का प्रयोग हुआ है। तत्वार्थसूत्र में उपयोग ( चेतना ) दो प्रकार का माना गया है-(१) ज्ञानात्मक ( ज्ञानोपयोग) और ( २ ) अनुभूत्यात्मक ( दर्शनोपयोग )। डा० कलघाटगी उपयोग शब्द में चेतना के ज्ञानात्मक, अनुभूत्यात्मक और संकल्पात्मक तीनों ही पक्षों को समाहित करते हैं।" वस्तुतः नैतिक जीवन की दृष्टि से आत्मा के ये तीनों पक्ष आवश्यक है । प्रो० सिन्हा न भी आत्मा में इन तीनों की उपस्थिति को आवश्यक माना है। आगे हम इन तीनों पर थोड़े विस्तार से चर्चा करेंगे। ( अ ) ज्ञानोपयोग
जैन विचारणा में ज्ञान को आत्मा का स्वभाव या स्वलक्षण माना गया है । वस्तुतः यदि आत्मा में ज्ञान नहीं हो तो नैतिक जीवन में निम्न तीन बातें असम्भव होंगी(१) नैतिक आदर्श का बोध, (२) शुभाशुभ का विबेक और ( २ ) नैतिक उत्तरदायित्व ।
१. नन्दिसत्र, सत्र ४२. २. लिबरेशन, पृ० ६३ पर उद्धृत. ३. नैषधचरित्र, १७.७५. ४. तत्वार्थसत्र, २६. ५. सम प्राबलेम्स इन जैन साइकोलाजी, पृ० ४.
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