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________________ २१४ शरीर ग्रहण करता है । जैसे व्यक्ति वस्त्रों को जीर्ण होने पर आत्मा जीर्ण शरीरों को बदलता रहता है ।" गीता में शरीर को क्षेत्रज्ञ कहा गया है और यह माना गया है कि हमारे वर्तमान क्षेत्रज्ञ या आत्मा और शरीर के संयोग से उत्पन्न हुए हैं । 3 जैन, बोद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन बदल देता है वैसे यह क्षेत्र और आत्मा को व्यक्तित्व क्षेत्र और इस प्रकार आत्मा को एक आध्यात्मिक मौलिक तत्त्व के रूप में स्वीकार किया गया ह, लेकिन जहाँ तक नैतिक कर्ता के रूप में हमारे व्यक्तित्वों का प्रश्न है उसे एक मनोनाविक या शरीरयुक्त आत्मा के रूप में ही स्वीकार किया गया है। जैन दर्शन के अनुसार व्यक्तित्व आत्मा और पुद्गल का विशिष्ट संयोग है । बौद्ध दर्शन के अनुसार भी मनुष्य नाम ( मानसिक ) ओर रूप भौतिक ) का संयोग है । गीता उसे क्षेत्र ( जड़ प्रकृति ) और क्षेत्रज्ञ ( आत्मा ) का संयोग मानती है । ३६. आत्मा के लक्षण नैतिकता के लिए आत्मा या व्यक्तित्व का होना ही पर्याप्त नहीं है, वरन् उसमें कुछ विशिष्ट क्षमताएँ भा होना चाहिए जिनके आधार नैतिक साध्य का अनुसरण किया जा सक तथा नतिक विवेक एवं सकल्प की क्षमता के आधार पर नैतिक उत्तरदायित्व का समुचित व्याख्या का जा सक । डा० यदुनाथ सिन्हा के अनुसार आत्मा को एक पास्तविक, स्थाया, आत्मचतन एवं स्वतंत्र कर्ता होना चाहिए । स्व के भीतर जात्म-सचालन तथा आत्मानणय की शक्ति ( संकल्प स्वातन्त्र्य ) होना चाहिए । तर्क अथवा बुद्धि का आत्मा का एक अनिवार्य तत्व होना चाहिए । श्री केल्डरउड के अनुसार आत्मा कवल मनीषा के रूप में ही नही, शक्ति के रूप में भी प्रकट होती है । में एक आत्मचिंतन, बुद्धिमान् तथा आत्मनिर्णायक शक्ति है । इस प्रकार व्यक्तित्व में नात्मचतन सत्ता, आत्मनियन्त्रित बुद्धि तथा आत्मनिर्णायक क्रिया का समावेश होता ६ ।" जैन दाशानका न आत्मा में अनन्त चतुष्टय अर्थात् ज्ञान, दर्शन, सौख्य ( आनन्द ) आर वार्य ( शक्ति ) का अनन्तता को स्वीकार किया है। दर्शन आत्मचेतन सत्ता का, ज्ञान आत्मानयन्त्रित बुद्धि का और वीर्य संकल्पशक्ति या साध्य का अनुसरण करने की क्षमता एवं क्रिया का समानार्थक है । प्रमाणनयतत्त्वालोक में आत्मा के निम्न लक्षण वर्णित है, 'आत्मा चेतन्यस्वरूप, परिणामी, कर्ता साक्षात् भोक्ता, स्वदेह - परिमाण, प्रत्येक शरीर में भिन्न-भिन्न और पौद्गलिक कर्मों से युक्त है । ६ जीव का लक्षण उपयोग कहा गया है ।" उपयोग शब्द चेतना को अभिव्यक्त करता है । यह स्मरणीय है १, गीता, २।२२. २. वही, १३ १. ३. वही, १३।२६. ४. नीतिशास्त्र, पृ० २८१-२८२. ५. वही, पृ० २८३ पर उद्धृत. ६. प्रमाणनयतत्त्वालोक, ७१५६. ७. (अ) तवार्थसत्र, शद. (ब) उत्तराध्ययन, २८।११. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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