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आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
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पर ही चर्चा करना अपेक्षित है, जो जैन दार्शनिक मान्यताओं में ही पारस्परिक विरोध को प्रकट करते हैं-
१. जीव यदि पोद्गलिक नहीं है तो उसमें सौक्ष्म्य स्थौल्य अथवा संकोच - विस्तार क्रिया और प्रदेश परिस्पन्द कैसे बन सकता है ? जैन विचारणा के अनुसार सौम्य स्थौल्य को पुद्गल का पर्याय माना गया है । (२)
मानी गयी है । (३)
२. जीव के अपौद्गलिक होने पर आत्मा में पदार्थों का प्रतिबिम्बित होना भी कैसे बन सकता है ? क्योंकि प्रतिबिम्ब का ग्राहक पुद्गल ही होता है । जैन-विचार में ज्ञान की उत्पत्ति पदार्थों के आत्मा में प्रतिबिम्बित होने से ही ३. अपौद्गलिक और अमूर्तिक जीवात्मा का पौद्गलिक एवं मूर्तिक कर्मों के साथ बद्ध होकर विकारी होना कैसे बन सकता है ? ( इस प्रकार के बन्ध का कोई दृष्टान्त भी उपलब्ध नहीं है । स्वर्ण और पाषाण के अनादिबन्ध का जो दृष्टान्त दिया जाता है, वह विषम दृष्टान्त है और एक प्रकार से स्वर्णस्थानी जीव का पौद्गलिक होना ही सूचित करता है । (८)
४. रागादिक को पौद्गलिक कहा गया है और रागादिक जीव के परिणाम हैं- बिना जाव के उनका अस्तित्व नहीं । ( यदि जीव पौद्गलिक नहीं तो रागादिक पौद्गलिक कैसे सिद्ध हो सकेंगे ? इसके सिवाय अपौद्गलिक जीवात्मा में कृष्ण नीलादि लेश्याएँ कैसे बन सकती हैं ? ) (१०)
जैन दर्शन जड़ और चेतन के द्वैत को और उनकी स्वतन्त्र सत्ता को स्वीकार करता है । वह सभी प्रकार के अद्वैतवाद का विरोध करता है, चाहे वह शंकर का आध्यात्मिक अद्वैतवाद हो अथवा चार्वाक एवं अन्य वैज्ञानिकों का भौतिक अद्वैतवाद हो । लेकिन इस सैद्धान्तिक मान्यता से उपर्युक्त शंकाओं का समाधान नहीं होता । इसके लिए हमें जीव के स्वरूप को उस सन्दर्भ में देखना होगा जिसमें उपर्युक्त शंकाएं प्रस्तुत की गयी हैं । प्रथमतः संकोच - विस्तार तथा उसके आधार पर होने वाले सोक्षम्य एवं स्थौल्य तथा बन्धन और रागादिभाव का होना सभी बद्ध जीवात्माओं या हमारे वर्तमान सीमित व्यक्तित्व के कारण हैं । जहाँ तक सीमित व्यक्तित्व या बद्ध जीवात्मा का प्रश्न हैं, वह एकान्त रूप से न तो भौतिक है और न अभौतिक । जैन चिन्तक मुनि नथमल जी इन्हीं प्रश्नों का समाधान करते हुए लिखते हैं कि मेरी मान्यता यह है कि हमारा वर्तमान व्यक्तित्व न सर्वथा पौद्गलिक है, और न सर्वथा अपोद्गलिक । यदि उसे सर्वथा पौद्गलिक मानें तो उसमें चैतन्य नहीं हो सकता और उसे सर्वथा अपौद्गलिक मानें तो उसमें संकोच - विस्तार, प्रकाशमय अनुभव, ऊर्ध्वगौरवधर्मिता, रागादि नहीं हो सकते । मैं जहाँ तक समझ सका हूँ, कोई भी शरीरधारी जीव अपौद्गलिक नहीं है । जैन आचार्यों ने उसमें संकोच - विस्तार बन्धन आदि माने हैं, अपौद्गलिकता उसकी अन्तिम परिणति है जो शरीर मुक्ति से पहले कभी प्राप्त नहीं होती। मुनि जी के इस
१. तट दो प्रवाह एक, पृ० ५४.
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