________________
२१०
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भौतिक तत्त्व में नहीं है तो उन तत्त्वों के संयोग से भी वह उत्पन्न नहीं हो सकती। रेणु के प्रत्येक कण में न रहने वाला तैल रेणुकणों के संयोग से उत्पन्न नहीं हो सकता । अतः यह कहना युक्तिसंगत नहीं कि चैतन्य चतुर्भूत के विशिष्ट संयोग से उत्पन्न होता है। गीता भी कहती है कि असत् का प्रादुर्भाव नहीं होता और सत् का विनाश नहीं होता है। यदि चैतन्य भूतों में नहीं है तो वह उनके संयोग से निर्मित शरीर में भी नहीं हो सकता। शरीर में चैतन्य की उपलब्धि होती है; अतः उसका आधार शरीर नहीं, आत्मा है । आत्मा की जड़ से भिन्नता सिद्ध करने के लिए शीलांकाचार्य एक दूसरी युक्ति प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि पांचों इन्द्रियों के विषय अलगअलग हैं, प्रत्येक इन्द्रिय अपने विषय का ही ज्ञान करती है, जब कि पाँचों इन्द्रियों क विषयों का एकत्रीभूत रूप में ज्ञान करने वाला अन्य कोई अवश्य है और वह आत्मा है।
इसी सम्बन्ध में शंकर को भी एक युक्ति है । जिसके सम्बन्ध में प्रो० ए० सी० मुकर्जी ने अपनी पुस्तक 'नेचर आफ सेल्फ' में काफी प्रकाश डाला है । शंकर पूछते हैं कि भौतिकवादियों के अनुसार भूतों से उत्पन्न होनेवाली उस चेतना का स्वरूप क्या ह ? उनके अनुसार या ता चेतना उन तत्त्वों की प्रत्यक्ष कर्ता होगी या उनका ही एक गुण होगी। प्रथम स्थिति में यदि चेतना गुणों की प्रत्यक्ष कर्ता होगी, तो वह उनसे प्रत्युस्पन्न नहीं होगी। दूसरे यह कहना भी हास्यास्पद होगा कि भौतिक गुण अपने ही गुणों को ज्ञान की विषयवस्तु बनाते हैं। यह मानना कि चेतना जो भौतिक पदार्थों का ही एक गुण है, उनसे ही प्रत्युत्पन्न है, उन भौतिक पदार्थों को ही अपने ज्ञान का विषय बनाती है-उतना ही हास्यास्पद है जितना यह मानना कि आग अपने को ही जलातो है अथवा नट अपने ही कंधों पर चढ़ सकता है । इस प्रकार शंकर का निष्कर्ष भी यही है कि चेतना ( आत्मा ) भौतिक तत्त्वों से व्यतिरिक्त और ज्ञानस्वरूप है। आप एवं निराकरण
सामान्य रूप से जैन विचारणा में आत्मा या जीव को अपौद्गलिक, विशुद्ध चैतन्य एवं जड़ से भिन्न स्वतन्त्र तत्त्व या द्रव्य माना जाता है । लेकिन दार्शनिकों का आक्षेप है कि जैन विचार में जीव का स्वरूप बहुत कुछ पौद्गलिक बन गया है । यह आक्षेप अजैन दार्शनिकों का ही नहीं, अनेक जैन चिन्तकों का भी है और उसके लिए आगमिक आधारों पर कुछ तर्क भी प्रस्तुत किये गये हैं। पं० जुगलकिशोर मुख्तार ने इस विषय में एक प्रश्नावली भी प्रस्तुत की थी। यहां उस प्रश्नावली के कुछ उन प्रमुख मुद्दों १. जैन दर्शन, पृ० १५७. २. गीता, २११६. ३. सत्रकृतांग टीका, ११११८. ४. दा नेचर आफ सेल्फ, पृ० १४१-१४३. ५. अनेकान्त, जून १९४२.
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org