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मास्मा का स्वरूप और नैतिकता के अस्तित्व के विषय में दार्शनिकों में सामान्यतः कोई विवाद ही नहीं है; यदि विवाद है तो उसका सम्बन्ध आत्मा के विशेष स्वरूप से है ( न कि उसके अस्तित्व से )। स्वरूप की दृष्टि से कोई शरीर को ही आत्मा मानता है, कोई बुद्धि को, कोई इन्द्रिय या मन को, और कोई विज्ञान-संघात को आत्मा समझता है। कुछ ऐसे भी व्यक्ति हैं जो इन सबसे पृथक् स्वतन्त्र आत्मतत्त्व के अस्तित्व को स्वीकार करते हैं। जैन दर्शन और गीता आत्मा को स्वतन्त्र द्रव्य के रूप में स्वीकार करते हैं । ६४. आत्मा एक मौलिक तत्त्व
आत्मा एक मौलिक तत्त्व है अथवा अन्य किसी तत्त्व से उत्पन्न हुआ है, यह प्रश्न भी महत्त्वपूर्ण है। सभी दर्शन यह मानते हैं कि संसार आत्म और अनात्म का संयोग है, लेकिन इनमें मूल तत्त्व क्या है ? यह विवाद का विषय है। इस सम्बन्ध में चार प्रमुख धारणाएँ हैं--(१) मूल तत्त्व जड़ ( अचेतन ) है और उसी से चेतन की उत्पत्ति होती है । अजितकेशकम्बलिन्, चार्वाक दार्शनिक एवं भौतिकवादी इस मत का प्रतिपादन करते हैं। (२) मूल तत्व चेतन है और उसी की अपेक्षा से जड़ की सत्ता मानी जा सकती है। बौद्ध विज्ञानवाद, शांकर वेदान्त तथा बर्कले इस मत का प्रतिपादन करते हैं। (३) कुछ विचारक ऐसे भी हैं जिन्होंने परमतत्व को एक मानते हुए भी उसे जड़चेतन उभयरूप स्वीकार किया और दोनों को ही उसका पर्याय माना। गीता, रामानुज और स्पिनोजा इस मत का प्रतिपादन करते हैं । (४) कुछ विचारक जड़ और चेतन दोनों को ही परमतत्व मानते हैं और उनके स्वतन्त्र अस्त्तिव में विश्वास करते हैं। सांख्य, जैन और देकार्त इस धारणा में विश्वास करते हैं ।
जैन विचारक स्पष्ट रूप से कहते हैं कि कभी भी जड़ से चेतन की उत्पत्ति नहीं होती। सूत्रकृतांग की टीका में इस मान्यता का निराकरण किया गया है। शीलांकाचार्य लिखते हैं कि भूत समुदाय स्वतन्त्रधर्मी है, उसका गुण चैतन्य नहीं है क्योंकि पृथ्वी आदि भूतों के अन्य पृथक्-पृथक् गुण हैं, अन्य गुणोंवाले पदार्थों से या उनके समूह से भी किसी अपूर्व ( नवीन ) गण की उत्पत्ति नहीं हो सकती, जैसे रुक्ष बालका कणों के समुदाय में स्निग्ध तेल की उत्पत्ति नहीं होती। अतः चैतन्य आत्मा का ही गुण हो सकता है, भूतों का नहीं । जड़ भूतों से चेतन आत्मा की उत्पत्ति नहीं हो सकती। शरीर भी ज्ञानादि चैतन्य गुणों का कारण नहीं हो सकता, क्योंकि शरीर भौतिक तत्त्वों का कार्य है और भौतिक तत्त्व चेतनाशून्य हैं। जब भूतों में ही चैतन्य नहीं है तो उनके कार्य में चैतन्य कहाँ से आ जायेगा। प्रत्येक कार्य, कारण में अव्यक्त रूप से रहता है। जब वह कारण कार्यरूप में परिणत होता है, तब वह शक्तिरूप से रहा हुआ कार्य व्यक्त रूप में सामने आ जाता है। जब भौतिक तत्त्वों में चेतना नहीं है, तब यह कैसे सम्भव है कि शरीर चैतन्यगुण वाला हो जाय ? यदि चेतना प्रत्येक
१. न्यायवार्तिक, पृ० ३६६ ( आत्ममीमांसा पृ० २ पर उद्धृत ). २. सत्रकृतांग टीका, १३१८,
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