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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
नहीं किया जा सकता । यदि हमें आत्मा का स्वतः बोध होता है तो उसकी सत्ता निर्विवाद है ।
पाश्चात्य विचारक देकार्त ने भी इसी तर्क के आधार पर आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध किया है । वह कहता है कि सभी के अस्तित्व में सन्देह किया जा सकता है, परन्तु सन्देह में सन्देह करना तो सम्भव नही है, सन्देह का अस्तित्व सन्देह से परे ह | सन्देह करना विचार करना है और विचारक के अभाव में विचार नहीं हो सकता । में विचार करता हूँ, अतः मैं हूँ । इस प्रकार देकार्त के अनुसार भी आत्मा का अस्तित्व स्वयंसिद्ध है | 2
आत्मा अमूर्त है, अतः उसको उस रूप में तो नहीं जान सकते जैसे घट पट आदि वस्तुओं का इन्द्रियप्रत्यक्ष के रूप में ज्ञान होता है । लेकिन इतने मात्र से उसका निषेध नहीं किया जा सकता । जैन आचार्यों ने इसके लिए गुण और गुणी का तर्क दिया हूं । घट आदि जिन वस्तुओं को हम जानते हैं उनका भी यथार्थप्रत्यक्ष नहीं हो सकता क्योंकि हमे जिनका प्रत्यक्ष होता है, वह घट के रूपादि गुणों का प्रत्यक्ष है । लकिन घट मात्र रूप नहीं है, वह तो अनेक गुणों का समूह है जिन्हें हम नहीं जानते, रूप आकार ) तो उनमें से एक गुण है । जब रूपगुण के प्रत्यक्षीकरण को घट का प्रत्यक्षीकरण मान लेते हैं और हमें कोई संशय नहीं होता, तो फिर ज्ञानगुण से आत्मा का प्रत्यक्ष क्यों नहीं मान लेत । 3
आधुनिक वैज्ञानिक भी अनेक तत्त्वों का वास्तविक प्रत्यक्ष नहीं कर पाते हैं, जैसे ईथर; फिर भी कार्यों के आधार पर उनका अस्तित्व मानते हैं एव स्वरूप विवेचन भी करते हैं । फिर आत्मा के चेतनात्मक कार्यों के आधार पर उसके अस्तित्व को क्यों न स्वीकार किया जाये ? वस्तुतः आत्मा या चेतना के अस्तित्व का प्रश्न महत्त्वपूर्ण होते हुए भा विवाद का विषय नहीं है । भारतीय चिन्तकों में चार्वाक एवं बोद्ध तथा पश्चिम में ह्यूम, जेम्स आदि विचारक आत्मा के अस्तित्व का निषेध करत हैं । वस्तुतः उनका निषेध आत्मा के अस्तित्व का निषेध नहीं, वरन् उसकी नित्यता का निषेध है । व आत्मा को एक स्वतन्त्र नित्य द्रव्य के रूप में स्वीकार नहीं करते हैं, लकिन चेतन अवस्था या चेतना प्रवाह के रूप में आत्मा का अस्तित्व तो उन्हें भी स्वीकार है । चार्वाक दर्शन भी यह नहीं कहता कि आत्मा का सर्वथा अभाव है, उसका निषेध मात्र आत्मा को स्वतन्त्र मौलिक तत्त्व मानने से है । बौद्ध विचारक अनात्मवाद की प्रतिस्थापना में आत्मा ( चेतना ) का निषेध नहीं करते, वरन् उसकी नित्यता का निषेध करते हैं । ह्यूम भी अनुभूति से भिन्न किसी स्वतन्त्र आत्मतत्त्व का ही निषेध करते हैं | उद्योतकर का न्यायवार्तिक में यह कहना समुचित जान पड़ता है कि आत्मा
१. ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य, ३ २ २१; तुलना कीजिए - आचारांग, १२५ ५.
२. पश्चिमा दर्शन, पृ० १०६.
३. विशेषावश्यक भाष्य, १५५८.
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