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आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
$ ३. आत्मा का अस्तित्व
जहाँ तक नैतिक जीवन का प्रश्न है आत्मा के अस्तित्व पर शंका करके आगे बढ़ना असम्भव है । जैन दर्शन में नैतिक विकास की पहली शर्त आत्मविश्वास है । जैन विचारकों ने आत्मा के अस्तित्व को सिद्ध करने के लिए निम्न तर्क प्रस्तुत किये हैं
१. जीव का अस्तित्व जीव शब्द से ही सिद्ध है, क्योंकि असद् की कोई सार्थ संज्ञा ही नहीं बनती ।"
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२. जीव है या नहीं, यह सोचना मात्र ही जीव की सत्ता को सिद्ध करता है । देवदत्त जैसा सचेतन प्राणी ही यह सोच सकता है कि वह स्तम्भ है या पुरुष । ३
३. शरीर स्थित जो यह सोचता है कि मैं नहीं हूँ, वही तो जीव है। जीव के अतिरिक्त संशयकर्ता अन्य कोई नहीं है । यदि आत्मा ही न हो तो ऐसी कल्पना का प्रादुर्भाव ही कैसे हो कि मैं हूँ ? जो निषेध कर रहा है वह स्वयं ही आत्मा है । संशय के लिए किसी ऐसे तत्त्व की अनिवार्यता है जो उसका आधार हो । बिना अधिष्ठान के किसी ज्ञान की उत्पत्ति नहीं हो सकती । संशय का अधिष्ठान कोई न कोई अवश्य होना चाहिए । महावीर गौतम से कहते हैं, हे गौतम! यदि संशयी ही नहीं है तो 'मैं हैं ' या 'नहीं है' यह संशय कहाँ से उत्पन्न होता है ? यदि तुम स्वयं ही अपने खुद के विषय में सन्देह कर सकते हो तो फिर किसमें संशय न होगा। क्योंकि संशय आदि जितनी भी मानसिक और बौद्धिक क्रियाएँ हैं, सब आत्मा के कारण ही हैं । जहाँ संशय होता है, वहीं आत्मा का अस्तित्व अवश्य स्वीकारना पड़ता है। जो प्रत्यक्ष अनुभव मे सिद्ध है, उसे सिद्ध करने के लिए किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं । आत्मा स्वयंसिद्ध है, क्योंकि उसी के आधार पर संशयादि उत्पन्न होते हैं । सुखदुःखादि को सिद्ध करने के लिए भी किसी अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं । ये सब आत्मपूर्वक ही हो सकते हैं । * आचारांगसूत्र में कहा गया है कि जिसके द्वारा जाना जाता है, वही आत्मा है ।"
आचार्य शंकर भी ब्रह्मसूत्रभाष्य में ऐसे ही तर्क देते हुए कहते हैं कि जो निरसन ! कर रहा है वही तो उसका स्वरूप है । आत्मा के अस्तित्व के लिए स्वतः बोध को शंकर भी एक प्रबल तर्क के रूप में स्वीकार करते हैं। वे कहते हैं कि सभी को आत्मा के अस्तित्व में भरपूर विश्वास है, कोई भी ऐसा नहीं कहता है कि मैं नहीं हैं । अन्यत्र शंकर स्पष्ट रूप से यह भी कहते हैं कि बोध से सत्ता को और सत्ता से बोध को पृथक
१. विशेषावश्यक भाष्य, १५७५.
२. वही, १५७१.
३. वही, १५५७.
४. जैन दर्शन, पृ० १५४.
५. आचारांग, ११५/५1१६६.
६. ब्रह्मसूत्र, शांकर भाष्य, ३।१७. ७. वही, १ १ २.
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