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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन भी नैतिक सिद्धान्त का समुचित मूल्यांकन आत्मासम्बन्धी सिद्धान्त के प्रकाश में और आत्मासम्बन्धी सिद्धान्त का मूल्यांकन नैतिक सिद्धान्त के प्रकाश में ही किया जा सकता है । बुद्ध के अनात्मवाद के सिद्धान्त के पीछे अनासक्ति का नैतिक दर्शन ही था और उपनिषदों के एकात्मवाद के पीछे नैतिक दर्शन का आत्मवत् दृष्टि या समत्वभाव का सिद्धान्त ही था। जो लोग आत्मस्वरूप को व्याख्या के अभाव में किसी भी नैतिक विचार का मूल्यांकन करने का प्रयास करते हैं अथवा नैतिक सिद्धान्तों के सन्दर्भ के बिना ही उसके आत्मासम्बन्धी सिद्धान्त को समझने की कोशिश करते हैं, वे भ्रान्ति में हैं। ६२. आत्मा के प्रत्यय की आवश्यकता
आत्मा का प्रत्यय नैतिक विचारणा के लिए क्यों आवश्यक है ? इस प्रश्न का समुचित उत्तर निम्न तर्कों के आधार पर दिया जा सकता है
१. नैतिकता एक विचार है, जिसे किसी विचारक की अपेक्षा है ।
२. नैतिकता या अनैतिकता कार्यों के माध्यम से ही अभिव्यक्त होती है । सामान्य जन विचारपूर्वक सम्पादित कार्यों के आधार पर उसके कर्ता को नैतिक अथवा अनैतिक मानता है, अतः विचारपूर्वक कार्यों को सम्पादित करनेवाला स्वचेतन कर्ता नैतिक दर्शन के लिए आवश्यक है।
३. शुभाशुभ का ज्ञान एवं विवेक नैतिक उत्तरदायित्व की अनिवार्य शर्त है। नैतिक उत्तरदायित्व किसी विवेकवान चेतना के अभाव में सम्भव नहीं है।
४. नैतिक या अनैतिक कर्मों के लिए कर्ता उसी स्थिति में उत्तरदायी है, जब कर्म स्वयं कर्ता का हो। यह स्व (Self ) का विचार आत्मा का विचार है एवं आत्माश्रित है।
५. नैतिक उत्तरदायित्व के लिए कर्म कर्ता के संकल्प ( will ) का परिणाम होना चाहिए । संकल्प-चेतना ( आत्मा) के द्वारा ही हो सकता है ।
६. नैतिक एवं अनैतिक कर्म के सम्पन्न होने के पूर्व विभिन्न इच्छाओं एवं वासनाओं के मध्य संघर्ष होता है और उसमें से किसी एक का चयन होता है, अत: इस संघर्ष का द्रष्टा एवं चयन का कर्ता कोई स्वचेतन आत्म-तत्त्व ही हो सकता है।
७. नैतिक उत्तरदायित्व में संकल्प को स्वतन्त्रता अनिवार्य शर्त है और संकल्प को स्वतन्त्रता स्वचेतन (आत्मचेतन ) आत्मतत्त्व में ही हो सकती है।
८. यदि नैतिकता एक आदर्श है तो आदर्श को अभिस्वीकृति और उसकी .. उपलब्धि का प्रयास आत्मा के द्वारा ही सम्भव है।
जैन दर्शन में आत्मा का स्वरूप क्या है ? इस प्रश्न पर समुचित रूप से विचार करने के लिए हमें यह जान लेना होगा कि किसी तर्कसिद्ध नैतिक दर्शन के लिए किस प्रकार के आत्मसिद्धान्त को आवश्यकता है और जैन दर्शन को तत्सम्बन्धी मान्यताएँ कहाँ तक नैतिक विचारणा के अनुकूल है। यहाँ तात्त्विक समालोचनाओं में न जाकर मात्र नैतिकता की दृष्टि से ही आत्म-सम्बन्धी मान्यताओं पर विचार किया गया है।
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