________________
आत्मा का स्वरूप और नैतिकता
१. नैतिकता और आत्मा
नैतिकता जीवन के आदर्श की उपलब्धि का प्रयास है। वह एक मार्ग है जो उस आदर्श की ओर जाता है । वह एक गति है जो आदर्श की उपलब्धि की दिशा की ओर जाती है । नैतिकता एक क्रिया भी है, एक मार्ग भी है; वह आदर्श की उपलब्धि का प्रयास होने से क्रिया है और आदर्शाभिमुख होने से मार्ग। वह ऐसी क्रिया है जो अपूर्णता से पूर्णता की ओर, बन्धन से मुक्ति की ओर, दुःख से दुःखविमुक्ति की ओर ले जाती है।
लेकिन विसुद्विमग्ग के अनुसार यदि केवल यह कहा जाय कि वहाँ मात्र क्रिया है कर्ता नहीं, मार्ग है चलनेवाला नहीं, दुःख है दुःखित नहीं, परिनिर्वाण ( दुःखविमुक्ति) है परिनिवृत नहीं तो इतने से बुद्धि को सन्तोष नहीं होता । यद्यपि बौद्ध दर्शन के अनुसार क्रिया से भिन्न कर्ता को स्थिति नहीं है तथापि सामान्य व्यक्ति के लिए तो बिना कर्ता के क्रिया की सम्भावना ही नहीं है। बिना पथिक के मार्ग का कोई अर्थ नहीं है।
नैतिक चिन्तन शुभाशुभ का विवेक है, और वह विवेक किसी चैतन्य तत्त्व में हो सकता है। बिना किसी ऐसे विवेक क्षमतायुक्त, शुभाशुभ के ज्ञाता चैतन्यतत्त्व की स्वीकृति के नैतिक दर्शन का कोई अस्तित्व नहीं हो सकता। नैतिकता कोई अमूर्त प्रत्यय नहीं वरन् एक वास्तविक या यथार्थ प्रत्यय है। नैतिकता का सम्बन्ध संकल्प और क्रिया (शुभेच्छा एवं कर्म ) से है, लेकिन संकल्प और क्रिया चेतन-तत्त्व की अभिव्यक्तियाँ ही तो हैं । आचारदर्शन के अनुसार जिसमें नैतिक आदर्श का बोध, नैतिक विवेक और नैतिक जीवन का अनुसरण करने की क्षमता है, उसे आत्मा या 'स्व' (Self ) कहा जाता है।
कोई भी आचारदर्शन बिना आत्म-तत्त्व के विवेचन के आगे नहीं बढ़ता । आत्मतत्व वह केन्द्र-बिन्दु है जिसके आसपास नैतिक दर्शन गति करता है। नैतिकता की कोई भी व्याख्या आत्मा के अभाव में सम्भव नहीं है। नैतिकता का प्रत्यय आत्मा के प्रत्यय का अनुगामी है । नैतिक जीवन और नैतिक दर्शन आत्म-सापेक्ष हैं। नैतिक सिद्धान्तों की प्रतिष्ठापना के लिए आत्म-सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना अनिवार्य है। किसी २. बृहदारण्यकोपनिषद्, शश२८. २. विमुद्धिमग्ग, उद्धत-बौद्ध दर्शन और अन्य भारतीय दर्शन, प्रथम भाग, पृ० ५११.
१३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org