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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
कथन को अधिक स्पष्ट रूप में यों कहा जा सकता है कि जीव का अपौद्गलिक स्वरूप उपलब्धि नहीं, आदर्श है । जैन साधना का लक्ष्य इसी अपौद्गलिक स्वरूपकी उपलब्धि है । जीव की पौद्गलिकता तथ्य है, आदर्श नहीं और जीव की अपौद्गलिकता आदर्श है, जागतिक तथ्य नहीं ।
जैन दार्शनिकों के अनुसार आत्मा का वास्तविक स्वरूप अभौतिक ही है, यद्यपि वह तथ्य नहीं क्षमता है जिसे उपलब्ध किया जा सकता है। जिस प्रकार बीज में वृक्ष वास्तविक रूप में कहीं उपलब्ध नहीं होता, लेकिन सत्ता तो रहती हो है जो विकास की प्रक्रिया में जाकर वास्तविकता बन जाती है । इसी प्रकार नैतिक विकास की प्रक्रिया से ही जीव उस अभौतिक स्वरूप को जो मात्र प्रसुप्त सत्ता में था, वास्तविकता बना देता है । जैन विचार यह भी स्वीकार करता है कि नैतिक जीवन के लिए जीवात्मा का सर्वथा अपौद्गलिक स्वरूप और सर्वथा पौद्गलिक स्वरूप दोनों ही व्यर्थ हैं । नैतिक जीवन क्रियाशीलता है, जो आत्मा के सर्वथा अपौद्गलिक स्वरूप में सम्भव नहीं है । नैतिक जीवन के लिए एक सशरीरी व्यक्तित्व चाहिए । लेकिन जब तक आत्मा को अपौद्गलिक स्वरूप उपलब्ध नहीं हो जाता, नैतिक साध्य मोक्ष की प्राप्ति नहीं होती । जब तक आत्मा शरीर में आबद्ध है, वह अपनी सीमितता या अपूर्णता से ऊपर नहीं उठ सकता । अतः नैतिक आदर्श की दृष्टि से आत्मा का अपौद्गलिक स्वरूप भी स्वीकार करना होगा । जब तक हम सीमितताओं और अपूर्णताओं से ऊपर नहीं उठ जाते हैं, तब तक हम सशरीर व्यक्तित्व बने रहेंगे और हमारे सामने नैतिकता का कार्यं - क्षेत्र भी बना रहेगा ।
$ ५. आत्मा और शरीर का सम्बन्ध
हमारा वर्तमान व्यक्तित्व पूर्णतया अभौतिक नहीं है । वह शरीर और आत्मा का विशिष्ट संयोग है । नैतिक दृष्टि से यह प्रश्न महत्त्वपूर्ण है कि आत्मा और शरीर का क्या सम्बन्ध है, क्या आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है अथवा आत्मा वही है जो शरीर है ? यदि यह माना जाये कि आत्मा भिन्न है और शरीर भिन्न है तो शरीर-धर्म ( भूख, प्यास, मैथुन, निद्रा प्रमाद आदि ) का सम्बन्ध नैतिकता से नहीं रहेगा, न हिंसा व्यभिचार आदि अनैतिक कर्म होंगे । साथ ही समस्त शारीरिक कर्मों की शुभाशुभता के लिए आत्मा को उत्तरदायी नहीं माना जा सकेगा । कायकृत कर्मों का फल उसे नहीं मिलना चाहिए । इस जन्म के शरीर के कर्मों का फल दूसरे जन्म का शरीर भोगे यह भी न्यायोचित नहीं होगा, क्योंकि दोनों शरीर भिन्न हैं । ऐसी स्थिति में अकृतागम का दोष होगा । साथ ही आत्मा और शरीर को एकांत रूप से भिन्न मानने पर शरीर से दूसरे की सेवा, स्तुति, कायिक तप आदि नैतिक एवं शुभ क्रियाओं का भी कोई अर्थ नहीं रह जायेगा । ये क्रियाएँ आत्मविकास में सहायक नहीं मानी जा सकेंगी। दूसरे, यदि आत्मा वही है जो शरीर है- यह माना जावे तो शरीर के विनाश के साथ आत्मा का विनाश मानना होगा और ऐसी स्थिति में अनेक
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