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जेन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
सूत्रकृतांग में सदाचार या नैतिक जीवन के लिए कुछ बातों में आस्तिक्य बुद्धि रखने का स्पष्ट निर्देश है और विस्तारपूर्वक यह बताया है कि कौन-सी मान्यताएं सदाचारी जीवन में बाधक हैं और कौन-सी मान्यताएं सहायक हैं।
यदि नैतिक मान्यताएँ मात्र पूर्वकल्पनाएँ या मनोकामना हैं और उनका बौद्धिक प्रत्याख्यान ( ताकिक निरसन ) सम्भव है तो फिर उनका क्या मूल्य होगा ? यदि हम उन्हें नैतिक दृष्टि से तर्क के आधार पर सिद्ध करने का प्रयत्न भी करें तो वह मात्र कामनाओं का औचित्यीकरण होगा।
पाश्चात्य आचारदर्शन में कांट और अरबन ने इस प्रश्न की समीक्षा की है। कांट कहते हैं कि ये मान्यताएँ तर्कसिद्ध सिद्धान्त नहीं हैं, अपितु पूर्वकल्पनाएँ हैं जो व्यवहारतः अनिवार्य हैं। यद्यपि ये हमारे बौद्धिक ज्ञान का विस्तार नहीं करती हैं, तथापि व्यवहार के प्रसंग में बौद्धिक प्रत्ययों को वस्तुनिष्ठ सत्यता ( Objective Reality ) प्रदान करती हैं। श्री संगमलाल पाण्डे कहते हैं कि कांट ने नैतिक मान्यताओं के बौद्धिक प्रत्याख्यान से यह निष्कर्ष निकाला कि कोरा बौद्धिक विवेचन निस्सार है और नैतिक व्यवहार उस वस्तु को सिद्ध कर देता है जिसे कोरा बौद्धिक विवेचन असिद्ध या संशयग्रस्त छोड़ देता है। श्री अरबन लिखते हैं कि नैतिक मान्यताओं को कामना ( मनोकल्पना ) कहने से यह सिद्ध नहीं होता कि नैतिक मान्यताओं में कोई सत्यता नहीं है। इससे तो यही स्पष्ट होता है कि उस सत्य को पाने की बलवती कामना होने के कारण वह सत्य है और उसकी प्राप्ति भी सम्भव है । विज्ञान की मान्यता केवल उसके प्रतिपाद्य विषय की व्याख्या के लिए है। उसका जीवन
और व्यवहार से कोई सम्बन्ध नहीं है। किन्तु नैतिक मान्यताएँ वास्तव में वे सत्य है जिनसे मनुष्य जीते हैं। यदि वे भ्रम या असत्य हो जाये तो वस्तुतः हमारा जीना ही समाप्त हो जाये। पाश्चात्य आचारदर्शन की नैतिक मान्यताएं
पाश्चात्य आचारदर्शन में सर्वप्रथम कांट ने तीन नैतिक मान्यताओं की स्थापना की-(१) संकल्प की स्वतन्त्रता, (२) आत्मा की अमरता और (३) ईश्वर का अस्तित्व । केल्डरउड ने संकल्प की स्वतंत्रता एवं अमरता के अतिरिक्त व्यक्तित्व, बौद्धिकता ( मनीषा ) तथा शक्ति को भी नैतिक जीवन के लिए आवश्यक माना है । कांट नैतिक प्रगति की अनिवार्यता के आधार पर आत्मा की अमरता को सिद्ध करते हैं,
१. सूत्रकृतांग, २॥५॥१२-२६. २. कांटस् सेलेक्शन, पृ० ३६८. ३. नीतिशास्त्र का सर्वेक्षण, पृ० ४५-४६. ४. फण्डामेण्टलस ऑफ इथिक्स, पृ० ३५७-३५९.
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