________________
आचारदर्शन के तात्त्विक आधार
बौद्ध
संवर
।
के अंश रूप में जीवात्मा और प्रकृति ( माया) की स्थिति मानी है । नैतिक दर्शन की अपेक्षा से गोता का जीवात्मा जैन परम्परा का जीव है और प्रकृति के कारण अज्ञानावृत होना बन्धन है और आत्मा की सत्ता के साररूप परमात्मा को पा लेना मुक्ति है। गीता में बन्धन के कारणों एवं मुक्ति के उपायों की चर्चा तो है, लेकिन उनका तत्त्व के रूप में कोई विवेचन नहीं है।
जैन, बौद्ध और गीता के तत्त्वों की तुलनात्मक तालिका जैन
गीता जीव
नाम ( चित्त या विज्ञान ) जीवात्मा अजीव रूप
प्रकृति बन्धन दुःख
जीवात्मा और प्रकृति का संयोग आस्रव
दुःखहेतु ( प्रतीत्यसमुत्पाद ) अज्ञान
दुःखनिरोध का मार्ग ज्ञानयोग, भक्तियोग और कर्मयोग निर्जरा
( अष्टांगमार्ग ) मोक्ष ( निर्वाण ) दुःखनिरोध ( निर्वाण ) परमात्मा की प्राप्ति (निर्वाण) ६४. नैतिक मान्यताएँ
प्रत्येक विज्ञान सुव्यवस्थित अध्ययन के लिए कुछ आधारभूत मान्यताएं लेकर चलता है जो कि उसकी समग्र तार्किक समीक्षाओं और निष्कर्षों के मूल में होती हैं। उन्हीं के आधार पर उस विज्ञान में तर्कसंगत सिद्धान्तों का निर्धारण होता है । अतः प्रत्येक विज्ञान के लिए अपनी मान्यताओं में विश्वास और निष्ठा रखना आवश्यक है। यदि हम उन आधारभूत मान्यताओं में निष्टा नहीं रखते हैं तो हमारे लिए उस विज्ञान के निष्कर्ष निरर्थक हो जाते है । उदाहरणार्थ, यदि कोई प्रकृति की समरूपता तथा कारणता के नियम में विश्वास न रखे तो उसके लिए भौतिक विज्ञान के निष्कर्षों का क्या मूल्य रहेगा ?
आचारदर्शन में नैतिक मान्यताएँ भी वे आधारभूत तत्त्व हैं, जिनके अभाव में नैतिक जीवन भ्रममात्र और दुर्बोध होता है। नैतिक मान्यताएं आचारदर्शन के भव्य महल के वे स्तम्भ हैं जिनके जर्जरित हो जाने पर वह भव्य महल ढह जाता है । आचारदर्शन का भव्य महल इन्हीं नैतिक मान्यताओं के प्रति अटूट निष्ठा पर अवस्थित है । यदि हम इनके प्रति संदेहशील रहे तो हमारे लिए नैतिकता अर्थहीन हो जायेगी। अतः हमें इनपर निष्ठा रखकर ही आगे बढ़ना होगा । नैतिक मान्यताओं पर निष्ठा रखना इसलिए भी आवश्यक है कि वे वैज्ञानिक स्वयंसिद्धियों से भिन्न हैं। वैज्ञानिक स्वयंसिद्धियों का बौद्धिक प्रत्याख्यान सम्भव नहीं है, जबकि नैतिक मान्यताओं का बौद्धिक प्रत्याख्यान सम्भव है क्योंकि उनकी सिद्धि तर्कशास्त्र के नियमों से नहीं होती । नैतिक मान्यताओं का आधार न तर्क है न स्वयंसिद्धि, वरन् आस्था है ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org