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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
(२) चैत्तसिक, (३) रूप और (४) निर्वाण | बौद्ध परम्परा के चारों आर्यसत्य पूर्णतः नैतिक जीवन प्रक्रिया से सम्बद्ध हैं । दुःख चित्त के समस्त विषयों या जागतिक उपादानों की नश्वरता, जन्म-मरण की भवपरम्परा और चित्त के बन्धन का प्रतीक है । दुःख का हेतु जन्म-मरण की भवपरम्परा के कारणों का सूचक है । वह अनैतिक जीवन के कारणों एवं स्थितियों की व्याख्या करता है । वह बताता है कि दुःख या जन्म-मरण की परम्परा अथवा अनैतिकता के हेतु क्या हैं । इन हेतुओं की व्याख्या के रूप में हो उसे प्रतीत्यसमुत्पाद का नियम भी कहा जाता है । चतुर्थ आर्यसत्य -- दुःख निरोध का मार्ग - यह बताता है कि यदि दुःख सहेतुक है तो हेतु का निराकरण भी सम्भव है । दुःख के हेतुओं का निराकरण कैसे हो सकता है यह बताना चतुर्थ आर्यसत्य का प्रमुख उद्देश्य है । इस रूप में वह नैतिक जीवनपद्धति या अष्टांगमार्ग की व्याख्या करता है । तृतीय आर्यसत्य दुःख निरोध नैतिक साधना की फलश्रुति के रूप में निर्वाण अवस्था का सूचक है । चारो परमार्थों में चित्त को नैतिक जीवन के प्रमुख सूत्रधार के रूप में स्वीकार किया जा सकता है । चैतनिक चित्त की कुशल, अकुशल या नैतिक-अनैतिक अवस्थाएँ हैं । चैत्तसिक चित्त की अवस्थाएँ हैं और चित्त चैत्तसिक अवस्थाओं का समूह है । रूप चित्त का आश्रयस्थान एवं कार्यक्षेत्र है । निर्वाण तृष्णा का क्षय हो जाना है ।
यदि हम चार आर्यसत्यों और चार परमार्थों पर सम्मिलित रूप से विचार करते हैं तो उनमें तृतीय आर्यसत्य दुःखनिरोध और चतुर्थ परमार्थ निर्वाण एक ही है । चैत्तसिकों का या तो चित्त में अन्तर्भाव हो जाता है या उनका अन्तर्भाव प्रथम तीन आर्यसत्यों में किया जा सकता है । इस प्रकार हमारे पास ६ प्रत्यय बचते हैं (१) चित्त, ( २ ) रूप, (३) दु:ख, (४) दुःखहेतु, ( ५ ) दुःखनिरोध का मार्ग और (६) दु:ख निरोध या निर्वाण |
जैन तत्त्वयोजना से तुलना
की जा सकती जीव के प्रत्यय से
उपर्युक्त ६ प्रत्ययों की तुलना जैन तत्त्वयोजना से निम्न रूप है । बौद्ध दर्शन का चित्त या विज्ञान तात्त्विक दृष्टि से जैन दर्शन के भिन्न है, फिर भी नैतिक कर्ता के रूप में दोनों समान हैं । इसी प्रकार रूप का प्रत्यय जैन दर्शन के अजीव के तुल्य है । बौद्ध परम्परा का दुःख जैन समान है, जबकि दुःखहेतु की तुलना आस्रव से की जा सकती है में आस्रव को बन्धन का और बौद्ध परम्परा में दुःखहेतु ( प्रतीत्यसमुत्पाद ) को दुःख का कारण माना गया है । इसी प्रकार दुःखनिरोध का मार्ग ( अष्टांगमार्ग ) जैन परम्परा के संवर और निर्जरा से तुलनीय है । दुःखनिरोध या निर्वाण की तुलना जैन परम्परा के मोक्ष से की जा सकती है ।
गीता की तत्त्वयोजना
गीता में परमतत्त्व के रूप में 'परमात्मा' को स्वीकार किया गया है और उसी १. अभिधम्मत्थसंग हो, पृ० १.
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परम्परा के बन्धन के क्योंकि जैन परम्परा
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