SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 242
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ आचारदर्शन के तात्त्विक आधार १९७ प्रकृति के हैं । उनका सम्बन्ध सत्ता से नहीं, नैतिक प्रक्रिया से है । वे नैतिक प्रक्रिया के रूप में ही अपना अस्तित्व रखते हैं, उससे स्वतन्त्र उनकी कोई सत्ता नहीं है । मूल द्रव्य तो जीव और अजीव ही हैं, शेष तत्त्व तो जीव और कर्म-पुद्गलों के सम्बन्ध की सापेक्ष अवस्थाओं का कथन करते हैं। दूसरे शब्दों में, ये विभिन्न नैतिक अवस्थाओं को ही अभिव्यक्त करते हैं। बन्धन का कारण क्या है ? बन्धन क्यों और कैसे होता है ? उससे छूटने का उपाय क्या है ? या कैसे छुटकारा प्राप्त किया जा सकता है ? छुटकारा मिलने के पश्चात् आत्मा किस स्थिति में रहती है ? आदि नैतिक समस्याओं के समाधान का प्रयास इस तत्त्वयोजना में परिलक्षित है । पुण्य और पाप कर्मों के शुभत्व अथवा अशुभत्व का निश्चय करते हैं, आस्रव बन्धन के कारण की व्याख्या करता है, तो बन्ध आत्मा के बन्धन के स्वरूप एवं प्रकृति का विवेचन करता है। संवर बन्ध के निरोध का उपाय हैं, तो निर्जरा बन्धन की श्रृंखला को तोड़ने की विधि है और मोक्ष सारी नैतिक साधना की फलश्रुति है । ___ इस तत्त्वयोजना में जीव और अजीव ये दो तत्त्व मात्र ज्ञेय माने गये हैं, जबकि पाप, आस्रव और बन्ध यह तीनों हेय ( त्याज्य ) और पुण्य, संवर, निर्जरा और मोक्ष ये चारों उपादेय (वरेण्य) माने गये हैं। पाप, आस्रव और बन्ध इन तीन से बचना चाहिए, जबकि पुण्य, संवर और निर्जरा इन तीन का आचरण करना चाहिए । अन्तिम तत्त्व मोक्ष वह आदर्श है जिसकी उपलब्धि के लिए इनका आचरण किया जाता है। यद्यपि निर्वाण के साधक के लिए पुण्य का आचरण भी लक्ष्य नहीं है, फिर भी साधना-मार्ग में सहायक होने के कारण उसकी आवश्यकता स्वीकार की गयी है। निर्वाण के साधक के लिए पुण्य भी बन्धन का कारण होने से शास्त्रकारों ने पुण्य को भी हेय या त्याज्य ही माना है । आचार्य श्री विनयचन्द्र कहते हैं, "पुण्य-पाप आस्रव परिहरिये, हेय पदारथ मानो रे ।" एक अन्य आचार्य ने भी ज्ञेय, हेय एवं उपादेय के वर्गीकरण में पुण्य को हेय ही माना है। उनके अनुसार बन्ध, आस्रव, पुण्य और पाप हेय ( त्याज्य ) हैं, जीव और अजीव यह दो ज्ञेय हैं तथा संवर, निर्जरा और मोक्ष उपादेय ( वरेण्य )। इस प्रकार जैन तत्त्वयोजना की यह प्रकृति उसमें नैतिक पक्ष की प्रमुखता को स्पष्ट करती है और हमारे उस पूर्व कथन का समर्थन करती है कि 'जैन दर्शन में तत्त्वमोमांसा के आधार पर नैतिकता खड़ी नहीं हुई है, वरन् नैतिकता के आधार पर तत्त्वमीमांसा की योजना की गयी है।' बौद्ध तत्त्वयोजना एवं उसकी नैतिक प्रकृति बौद्ध दर्शन में चार आर्यसत्यों एवं चार परमार्थों का विवेचन उपलब्ध है। चार आर्यसत्य इस प्रकार हैं-(१) दुःख, (२) दुःख का हेतु, (३) दुःख निरोध और (४) दुःखनिरोध का मार्ग ।२ अभिधम्मत्थसंगहो में निम्न चार परमार्थ बताये हैं-(१) चित्त, १. आत्मसाधनासंग्रह, पृ० ३१ पर उद्धृत. २. धम्मपद, २७३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy