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जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
दर्शन में सत् दो प्रकार के माने गये हैं- (१२) आध्यात्मिक ( जीव ) और (२) भौतिक ( अजीव ) । ये दोनों परिणामीनित्य हैं ।
जैन दृष्टिकोण की गीता से तुलना
गीता का दृष्टिकोण कुछ अर्थों में जैन दर्शन के समान है और कुछ अर्थों में भिन्न है । जहाँ जैन दर्शन आध्यात्मिक एवं भौतिक ऐसी दो स्वतन्त्र सत्ताएँ मानता है, वहीं गीता में आध्यात्मिक ( जीवात्मा ) और भौतिक ( प्रकृति ) सत्ताओं को स्वीकार करते हुए भी उन्हें परमसत्ता का ही अंग माना गया है । जीवात्मा और प्रकृति ( माया ) दोनों ही परमेश्वर के अंग हैं । क्षेत्र या भौतिक सत्ता के सन्दर्भ में गीता और जैन दर्शन दोनों का ही दृष्टिकोण समान है । दोनों ही उसे परिणामीनित्य मानते हैं । जहाँ तक आध्यात्मिक सत्ता ( आत्मा ) का प्रश्न है, गीता में उसे कूटस्थनित्य माना गया है, जबकि जैन दर्शन में उसे भी परिणामी नित्य माना गया है ।
जैन, बौद्ध और गीता के दर्शनों में सत् के
स्वरूप की तुलना को निम्न तालिका
से स्पष्ट किया जा सकता है
वर्शन
जैन
बौद्ध
गीता
-
सत्ताएँ
जीव ( आत्मा )
अजीव ( भौतिक सत्ता )
नाम ( विज्ञान या चित्त )
रूप ( भौतिक सत्ता )
परमात्मा
जीव
प्रकृति
१. उत्तराध्ययन, २८ १४.
२. तवार्थसूत्र, १।४.
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$ ३. जैन, बौद्ध और गीता में तत्त्वयोजना की तुलना
सत् के स्वरूप की चर्चा एवं नैतिक समीक्षा करने के की तत्त्वयोजना की व्याख्या एवं उसकी गीता और बौद्ध दर्शन से जैन तत्त्वयोजना एवं उसकी नैतिक प्रकृति
स्वरूप
परिणामी नित्य
परिणामी नित्य
परिणामी
परिणामी
कूटस्थ नित्य
कूटस्थ नित्य परिणामी नित्य
उत्तराध्ययनसूत्र के अनुसार ( १ ) जीव, (२) अजीव, (३) बन्ध, (४) पुण्य, (५) पाप, (६) आस्रव, (७) संवर, (८) निर्जरा और (९) मोक्ष, ये नौ तत्त्व माने गये हैं ।" तत्त्वार्थसूत्र में पुण्य और पाप को आस्रव के अन्तर्गत मानकर सात तत्त्वों का विधान है | जीव की नैतिक कर्ता के रूप में और अजीव की नैतिक कर्ता के कर्मक्षेत्र बाह्य जगत् के रूप में तात्त्विक सत्ताएँ हैं । जीव और अजीव के अतिरिक्त शेष तत्त्व वस्तुतः नैतिक
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बाद अब हम जैन दर्शन तुलना करेंगे ।
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