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________________ आचारदर्शन के तात्त्विक आधार ११५ सन्दर्भ में पूर्णतया असंगत हैं । यही कारण है कि आचारमार्गीय परम्परा के प्रतिनिधि बुद्ध ने उनका परित्याग करना आवश्यक माना । महावीर ने अपनी अनेकान्तवादी और समन्वयवादी परम्परा के अनुसार उनमें समन्वय स्थापित कर नैतिक जीवन के सन्दर्भ में उन्हें संगत बनाने का प्रयत्न किया । कहा जाता है कि महावीर ने केवल 'उपन्नेइवा, विगमइवा और धुवेइवा' इस त्रिपदी का उपदेश दिया और गणधरों ने इसी दर्शन सम्बन्धी मूल आशय के आधार पर द्वादशांगों की रचना की। इस प्रकार सत् के स्वरूप सम्बन्धी महावीर का यह उपदेश जैन दर्शन का केन्द्रीय तत्त्व है जिसपर उसकी तत्त्वमीमांसा, ज्ञानमीमांसा और आचारदर्शन खड़े हुए हैं । तत्त्वार्थसूत्र में उत्पादव्ययध्रौव्यात्मक सत्' कहकर सत् को उत्पत्ति, विनाश और स्थिरता से युक्त कहा है। उत्पाद और व्यय सत् के परिवर्तनशील पक्ष को व्यक्त करते हैं और ध्रुवता उत्पत्ति तथा विनाश के मध्य भी उसके वही बने रहने वाले पक्ष का सूचक है । ध्रुवता उत्पत्ति और विनाश का आधार है और उनके मध्य योजक कड़ी है। यदि ध्रौव्यात्मक पक्ष को अस्वीकार किया जायगा तो उत्पत्ति और विनाश परस्पर असम्बन्धित हो जायेंगे और सत्ता अनेक क्षणिक एवं परस्पर असम्बन्धित सत्ताओं में विभक्त हो जायेगी। अनेक क्षणिक एवं परस्पर असम्बन्धित सत्ताओं की धारणा में नैतिक व्यक्तितत्त्व का विच्छेद हो जायेगा और नैतिक उत्तरदायित्व तथा बन्धन और मोक्ष की व्याख्या नहीं हो सकेगी । इसी प्रकार यदि उसके परिवर्तनशील पक्ष को अस्वीकार किया गया तो नैतिक जीवन की विभिन्न अवस्थाएँ सम्भव नहीं होंगी। नैतिक विकास और नैतिक पतन तथा नैतिक कर्म सभी समाप्त हो जायेंगे । अतः नैतिक दृष्टि से सत् की यही धारणा समीचीन है । जैन दर्शन सत् में दोनों पक्षों की अवधारणा कर दोनों प्रकार के आक्षेपों से अपने को बचा लेता है । इसी प्रकार जैन दर्शन सत् के आध्यात्मिक ( जीव ) एवं भौतिक ( अजीव ) ऐसे दो प्रकार को मानकर आत्म के बन्धन के कारण की भी समुचित व्याख्या करता है। जैन दर्शन में सत के अपरिवर्तनशील पक्ष को 'द्रव्य' और परिवर्तनशील पक्ष को पर्याय कहा जाता है, लेकिन द्रव्य और पर्याय अन्योन्याश्रित एवं सापेक्ष हैं और कभी भी एक दूसरे से स्वतन्त्र नहीं रहते । द्रव्य के बिना कोई पर्याय नहीं होती और पर्यायों से शून्य कोई द्रव्य नहीं होता। द्रव्य की पर्याय ( परिवर्तनशील अवस्थाएँ) दो प्रकार की होती हैं3 (१) स्वभावपर्याय और (२) विभावपर्याय । जो पर के निमित्त से होती हैं वे ही विभावपर्याय हैं। आत्मद्रव्य की विभावपर्यायें जो पुद्गल के निमित्त से होती हैं, आत्मा के बन्धन की सूचक हैं; जबकि स्वभावपर्याय मुक्ति की सूचक है। नैतिक जीवन का अर्थ है विभावपर्याय से स्वभावपर्याय में आना । इस प्रकार जैन १. जैन सत्यप्रकाश, कार्तिक १६६३, पृ० ३१६ पर सार्व सिद्धान्तनी जड़ ( कापड़िया ). २. तत्त्वार्थसत्र, ५।२६. ३. समयसार टीका, २-३. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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