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________________ १९४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन हे गौतम ! क्या सभी कुछ नहीं है ? हे ब्राह्मण ! ऐसा कहना कि 'सभी कुछ नहीं है' दूसरी लौकिक बात है । हे गौतम ! क्या सभी कुछ एकत्व ( अद्वैत ) है ? हे ब्राह्मण ! ऐसा कहना कि 'सभी कुछ एकत्व है' तीसरी लौकिक बात है। हे गौतम ! क्या सभी कुछ नाना है ? हे ब्राह्मण ! 'सभी कुछ नाना है' ऐसा कहना चौथी लौकिक बात है । ब्राह्मण ! इन अन्तों को छोड़ बुद्ध सत्य को मध्यम प्रकार से बताते हैं ।। __इसी बात की पुष्टि कात्यायनगोत्रीय श्रमण के सम्मुख की गयी सम्यग्दृष्टि की व्याख्या से भी होती है। आयुष्मान् कात्यायनगोत्र भगवान् से बोले, "भन्ते ! जो लोग 'सम्यक्-दृष्टि' कहा करते हैं वह 'सम्यक्-दृष्टि' है क्या ?" "कात्यायन ! संसार के लोग दो अविद्याओं में पड़े हैं-(१) अस्तित्व की अविद्या में, और (२) नास्तित्व की अविद्या में । कात्यायन ! 'सभी कुछ विद्यमान है' यह एक अन्त है, 'सभी कुछ शून्य है' यह दूसरा अन्त है । कात्यायन ! बुद्ध इन दो अन्तों को छोड़ सत्य को मध्यम प्रकार से बताते हैं।"२ इस प्रकार सत्-सम्बन्धी बौद्ध दृष्टिकोण अनित्यतावादी होते हुए भी उच्छेदवाद नहीं है । आलोचकों ने उसे उच्छेदवाद समझकर जो आलोचनाएँ प्रस्तुत की हैं, वे चाहे उच्छेदवाद के सन्दर्भ में संगत हो लेकिन नौद्ध दर्शन के सन्दर्भ में नितान्त असंगत हैं। बुद्ध सत् के परिवर्तनशील पक्ष पर जोर देते हैं, इतने मात्र से उसे उच्छेदवाद नहीं माना जा सकता । बुद्ध के इस कथन का कि क्रिया है कर्ता नहीं, यह अर्थ कदापि नहीं है कि बुद्ध कर्ता या क्रियाशील तत्त्व की सत्ता का निषेध करते हैं । उनके इस कथन का तात्पर्य इतना ही है कि क्रिया से भिन्न कर्ता नहीं है, परिवर्तन से भिन्न सत्ता नहीं है । सत्ता और परिवर्तन में पूर्ण तदात्म्य है, सत्ता से भिन्न परिवर्तन और परिवर्तन से भिन्न सत्ता की स्थिति नहीं है । परिवर्तन और परिवर्तनशील अन्योन्याश्रित या सापेक्ष हैं, निरपेक्ष नहीं । वस्तुतः बौद्ध दर्शन का सत् सम्बन्धी दृष्टिकोण जैन दर्शन से उतना दूर नहीं है जितना कि मान लिया गया है। बुद्ध ने निषेधात्मक भाषा में सत् के सम्बन्ध में शाश्वतवाद और उच्छेदवाद को अस्वीकार किया और उसे अनुच्छेद एवं अशाश्वत कहा । महावीर ने स्वीकारात्मक भाषा में उसे 'नित्यानित्य' कहा। बौद्ध दर्शन की. आलोचना केवल निषेधात्मक पक्ष पर अधिक बल देने के रूप में हो की जा सकती है। सत् के सम्बन्ध में जैन दृष्टिकोण ___ सत् सम्बन्धी उपर्युक्त दोनों विरोधी दृष्टिकोण नैतिक जीवन की व्याख्या के १. संयुत्तनिकाय, निदानसंयुत्त, लोकायति कसुत्त. २. संयुत्तनिकाय, निदानसंयुत्त, कच्चानगोत्तसुत्त. ३. विशेष द्रष्टव्य-माध्यमिक कारिका, १. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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