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________________ आचारदर्शन के तात्त्विक आधार १९३ क्षणिकवाद को उच्छेदवाद मान लिया और उसी आधार पर उसपर आक्षेप किये हैं जो कि वस्तुतः उसपर लागू नहीं होते । बुद्ध का क्षणिकवाद उच्छेदवाद नहीं कहा जा सकता । भगवान् बुद्ध ने तो स्वयं उच्छेदवाद की आलोचना की है । बुद्ध का विरोध जितना शाश्वतवाद से है, उतना ही उच्छेदवाद से भी है । वे उच्छेदवाद और शाश्वतवाद में से किसी भी वाद में पढ़ना नही चाहते थे, इसीलिए उन्होंने वत्सगोत्र परिव्राजक के प्रति मौन रखा । वत्सगोत्र परिव्राजक भगवान् से बोला, हे गौतम ! क्या 'अस्तिता' है ? उसके यह पूछने पर भगवान् चुप रहे । हे गौतम! क्या 'नास्तिता' है ? यह पूछने पर भी भगवान् चुप रहे । तब, वत्सगोत्र परिव्राजक आसन से उठकर चला गया । वत्सगोत्र परिव्राजक के चले जाने के बाद ही आयुष्मान् आनन्द भगवान् से बोले, भन्ते ! वत्सगोत्र परिव्राजक से पूछे जाने पर भगवान् ने उत्तर क्यों नहीं दिया ? "आनन्द ! यदि मैं वत्सगोत्र परिव्राजक से 'अस्तिता है' कह देता, तो यह शाश्वतवाद का सिद्धान्त हो जाता और यदि मैं वत्सगोत्र से 'नास्तिता है' कह देता तो यह उच्छंदवाद का सिद्धान्त हो जाता । "" बुद्ध ने शाश्वतवाद और उच्छेदवाद के एकान्त-मार्ग से बचने के लिए सुख-दुःख को एकान्त रूप से आत्मकृत और परकृत मानने से इनकार किया, क्योंकि इनमें से किसी भी एक सिद्धान्त को स्वीकार करने पर उन्हें एकान्त या अतिवाद में जाने की सम्भावना प्रतीत हुई । अचेलकाश्यप के प्रति वे कहते हैं, "काश्यप ! जो करता है वही भोगता है ख्याल कर, यदि कहा जाय कि दुःख अपना स्वयं किया होता है तो शाश्वतवाद हो जाता है। काश्यप ! 'दूसरा करता है और दूसरा भोगता है' ख्याल कर, यदि संसार के फेर में पड़ा हुआ मनुष्य कहे कि दुःख पराये का किया होता है तो उच्छेदवाद हो जाता है । काश्यप ! बुद्ध इन दो अन्तों को छोड़ सत्य को मध्यम प्रकार से बताते हैं । "२ बुद्ध तो मध्यममार्ग के प्रतिपादक हैं, भला वे किसी भी एकान्तदृष्टि में कैसे पड़ते ? उन्होंने सत् के एकत्व और अनेकत्व, अस्तित्व ( स्थायी ) और अनस्तित्व के एकान्तिक मार्गों का परित्याग करके मध्यममार्ग का ही उपदेश दिया है । लोकायतिक ब्राह्मण से अपने संवाद में स्वयं उन्होंने इसे अधिक स्पष्ट कर दिया है । लोकायतिक ब्राह्मण भगवान् से बोला, हे गौतम ! क्या सभी कुछ है ? ब्राह्मण ! ऐसा कहना कि 'सभी कुछ है' पहली लौकिक बात है । १. संयुत्तनिकाय, अव्याकृतसंयुक्त्त, आनन्दसुत्त. २. संयुत्तनिकाय, निदानसंयुक्त, अचेलकस्सपसुत्त. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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