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________________ १९२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन सत्ता को जन्म देकर समाप्त हो जाती है । इस प्रकार सत् का यह प्रक्रिया या परिवर्तनशीलता का सिद्धान्त अनित्यवाद या क्षणिकवाद बन जाता है । अनित्यवाद एवं क्षणिकवाद सैद्धान्तिक दृष्टि से जैन दार्शनिकों का इस धारणा के विपरीत यह कहना है कि यह ठीक है कि उत्पत्ति के बिना नाश और नाश के बिना उत्पत्ति सम्भव नहीं है, लेकिन उत्पत्ति और नाश दोनों का आश्रय कोई पदार्थ होना चाहिए । एकान्त नित्यपदार्थ में परिवर्तन सम्भव नहीं और यदि पदार्थों को एकान्त क्षणिक माना जाय तो परिवर्तित कौन होता है, यह भी नहीं बताया जा सकता । आचार्य समन्तभद्र इस दृष्टिकोण पर आक्षेप करते हुए कहते हैं कि एकान्त क्षणिकवाद को मानने पर प्रेत्यभाव ( पुनर्जन्म ) असम्भव होगा और प्रेत्यभाव के अभाव में पुण्य-पाप क्रियाओं के प्रतिफल तथा बन्धन और मोक्ष भी सम्भव नहीं होंगे । एकान्त क्षणिकवाद में प्रत्यभिज्ञा भी सम्भव नहीं है और प्रत्यभिज्ञा के अभाव में कार्यारम्भ भी नहीं होगा। फिर फल कहाँ से ?" युक्त्यनुशासन में भी कहा गया है कि क्षणिकवाद में बन्धन और मोक्ष का कोई स्थान नहीं । संवृतिसत्य ( व्यवहार ) के रूप में भी उन्हें नहीं बताया जा सकता, क्योंकि परमार्थ ( सत् ) तो भूषा स्वभाव ( निःस्वभाव ) है ( यहाँ नागार्जुन के दृष्टिकोण पर कटाक्ष किया गया है ) । मुख्य को समाप्त कर देने पर गौण का विधान सम्भव नहीं । अर्थात् यदि परमार्थ ही निःस्वभाव है तो फिर व्यवहार ( संवृतिसत्य ) का विधान कैसे होगा ? हे विचारक, तेरी विचारदृष्टि विभ्रान्त है । प्रत्येक क्षण में उत्पन्न होकर निरुद्ध हो जाने वाले भंगों में बिना किसी नित्यतत्त्व के कोई तादात्म्य नहीं होगा और उनके पृथक्-पृथक् होने पर न तो पारिवारिक सम्बन्ध सम्भव होंगे और न धन का लेनदेन हो सम्भव होगा । संक्षेप में क्षणिकवाद पर पांच आक्षेप लगाये गये हैं- (१) कृतप्रणाश, (२) अकृतभोग, (३) भवभंग, (४) प्रमोक्षभंग और (५) स्मृतिभंग | 3 इस प्रकार एकान्त क्षणिकवाद भी नैतिकता की समीचीन व्याख्या करने से सफल नहीं होता । बुद्ध का अमित्यवाद उच्छेदवाद नहीं है अनित्यता और क्षणिकता बौद्ध दर्शन के प्रमुख प्रत्यय हैं । भगवान बुद्ध ने अपने उपदेशों में इनपर बहुत अधिक बल दिया है । यह भी सत्य है कि बुद्ध सत् को एक प्रक्रिया ( Process ) या प्रवाह रूप में देखते हैं । उनकी दृष्टि में प्रक्रिया एवं परिवर्तनशीलता से भिन्न कोई सत्ता नहीं है । क्रिया है, लेकिन क्रिया से भिन्न कोई कर्ता नहीं है । बौद्ध दर्शन के इन मन्तव्यों को लेकर आलोचकों ने उसे जिस रूप में प्रस्तुत किया है, वह भगवान् बुद्ध के मूल आशय से बहुत दूर है । आलोचकों ने बुद्ध के १. आप्तमीमांसा, ४०-४१. २. युक्त्यनुशासन, १५-१६. ३. अन्ययोगव्यवच्छेदिका, १८. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001674
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 1
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1987
Total Pages586
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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