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आचारदर्शन के तात्त्विक आधार
ही सत् की दो दृष्टियाँ होने से परस्पर सम्बन्धित हैं, जबकि अद्वैतवाद में वे परस्पर विरोधी सत्ताएँ होने से असम्बन्धित हैं। यही कारण है कि जैन दर्शन की सत् व्यावहारिक नैतिकता सत् पारमार्थिक आत्मतत्त्व का साक्षात्कार करा सकती है, क्योंकि सत् से ही सत् पाया जा सकता है, असत् से सत् नहीं पाया जा सकता। विचारपूर्वक देखें तो अद्वैतवाद भी व्यवहार को असत् कहने का साहस नहीं कर सकता, क्योंकि उसकी व्यावहारिक सत्ता को धारणा माया पर अवलम्बित है और यदि माया असत् नहीं है तो व्यावहारिक स्तर पर होनेवाले भेद एवं परिवर्तन भी असत् नहीं हैं। यहाँ हम शंकर
और जैन दर्शन में उतनी दूरी नहीं पाते, जितनी कि आलोचकों द्वारा बतायी गयी है। $ २. (ब) सत् के अनेक, अनित्य और भौतिक स्वरूप को नैतिक समीक्षा
सत् के अद्वय, अविकार्य ( अव्यय ) और आध्यात्मिक स्वरूप के ठीक विपरीत सत् की वह धारणा है जो उसे अनेक, अनित्य और भौतिक मानती है । महावीर के समकालीन अजितकेशकम्बल इस मत को मानने वाले प्रतीत होते हैं । यदि सत्' का स्वरूप भौतिक है तो उसमें नैतिकता के लिए कोई भी स्थान नहीं रहेगा, क्योंकि नैतिक विवेक, नैतिक मूल्य और नैतिक निर्णय सभी चैतसिक जीवन की अवस्थाएं हैं। नैतिक मूल्य मात्र जैविक नहीं हैं, वे अतिजैविक एवं आध्यात्मिक भी है। भौतिक सत् में ऐसे मूल्यों के लिए कोई स्थान नहीं रह जाता। नैतिक मूल्य और नैतिक परमश्रेय किसी आध्यात्मिक सत्ता पर ही आधृत हो सकते हैं, उनका आदि-स्रोत आध्यात्मिक सत्ता है, भौतिक सत्ता नहीं । दूसरे, यदि सत् का स्वरूप भौतिक है और चेतना का प्रत्यय शरीर के साथ ही उत्पन्न होता है और उसके विनष्ट हो जाने पर समाप्त हो जाता है, तो ऐसी स्थिति में भी नैतिक जीवन के लिए क्या स्थान होगा, यह अवश्य ही विचारणीय है। सूत्रकृतांग में भी सत् की भौतिकवादी तथा देहात्मवादी विचारधारा को नैतिकता की समुचित व्याख्या के लिए असंगत माना गया है, क्योंकि वह शुभाशुभ कर्मों के फलभोग की व्याख्या नहीं कर पाती है।' कांट नैतिकता के लिए आत्मा की अमरता के विचार को अनिवार्य समझते हैं । इस प्रकार सत् की भौतिकवादी मान्यता नैतिकता की दृष्टि से अनुपयुक्त ही है।
अब हम सत् की अनित्यवादी और क्षणिकवादी मान्यता पर थोड़ा विचार करें। बौद्ध दर्शन का अनित्यवादी दृष्टिकोण ..
बौद्ध दर्शन के अनुसार परिवर्तन ही सत् है। उसमें सत् को एक प्रक्रिया माना गया है । यहाँ सत् का लक्षण अर्थक्रियाकारित्व है। इसमें वस्तुतत्त्व को उत्पादव्ययधर्मी कहा गया है। परिवर्तन की धारणा को अनेक क्षणिक सत्ताओं की धारणाओं से दूर नहीं माना गया है, जो प्रथम क्षण में उत्पन्न होती है और दूसरे क्षण में किसी नवीन
१. सूत्रकृतांग, २०१६ २.दीघनिकाय, महासुदस्सनसुत्त.
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