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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
वाद को मार्ग में पड़ाव डालनेवाला कहते हैं । लेकिन वास्तविकता यह है कि अद्वैतवादी दर्शन केवल अभेद की अपेक्षा से व्यवहार - जगत् के भेद का निषेध कर बीच मार्ग में पड़ाव डाल देता है । वह आगे बढ़कर यह क्यों नहीं कहता कि व्यवहार के भेद की अपेक्षा से परमार्थ का अभेद या अद्वैत होना भी मिथ्या है और इससे भी आगे बढ़कर यह क्यों नहीं स्वीकार करता कि परमतत्त्व की अपेक्षा से तो भेद और अभेद दोनों ही यथार्थ हैं | अद्वैतवादी पारमार्थिक अभेद की अपेक्षा व्यावहारिक भेद को निम्नस्तरीय मानकर गलती करते हैं । पारमार्थिक दृष्टि और व्यावहारिक दृष्टि तो सत् के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ हैं, उनमें से किसी को भी एक-दूसरे से हीन नहीं माना जा सकता। दोनों ही अपनी-अपनी जगह यथार्थ हैं । व्यावहारिक भेद भी उतना ही यथार्थ है, जितना पारमार्थिक अभेद । दोनों में कोई तुलना नहीं की जा सकती । किन्हीं दो भिन्न-भिन्न स्थितियों से एक ही वस्तु के खींचे हुए चित्रों में कोई मिथ्या नहीं हो सकता । दोनों ही चित्र उन उन स्थितियों की अपेक्षा से वस्तु का सही स्वरूप ही प्रकट करते हैं । दोनों ही समानरूप में यथार्थ हैं उसी प्रकार सत् का भेदवादी दृष्टिकोण भी उतना ही यथार्थ है, जितना सत् का अभेदवादी दृष्टिकोण | क्योंकि दोनों सत्ता के ही पक्ष हैं । शांकरदर्शन की मूलभूत कमजोरी यह है कि वह पारमार्थिक और व्यावहारिक ऐसी दो सत्ताएँ खड़ी कर स्वयं ही अपने सिद्धान्त से पीछे हट जाता है । यदि शंकर दोनों की वास्तविक सत्ता मानते हैं तो उनका अद्वैत खण्डित होता है । दूसरी ओर यदि व्यवहार को मिथ्या कहते हैं, तो व्यावहारिक और पारमार्थिक ऐसी दो सत्ताएँ नहीं हो सकती । कुमारिल ने भी शंकर के दर्शन में यही दोष दिखाया है । २ वस्तुतः परमार्थ और व्यवहार दो सत्ताएँ नहीं, सत् के सम्बन्ध में दो दृष्टियां हैं और दोनों ही यथार्थ हैं ।
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कि वह पार
जैन दार्शनिकों का अद्वैतवाद से न तो इसलिए कोई विवाद है मार्थिक दृष्टि से अभेद को मानता है, क्योंकि द्रव्यार्थिक दृष्टि से अभेद तो उन्हें भी स्वीकार है और न इसलिए कोई विरोध है कि अद्वैतवाद व्यावहारिक स्तर पर नैतिकता की धारणा को स्वीकार करता है, क्योंकि जैन विचारकों को भी यही दृष्टिकोण मान्य है । जैन दर्शन का अगर अद्वैतवाद से कोई विरोध है तो वह इतना ही है कि जहाँ अद्वैतवाद व्यवहार को मिथ्या मानता है वहाँ जैन दर्शन व्यवहार को भी यथार्थ मानता हैं । अद्वैतवाद के इस दृष्टिकोण के प्रति जैन दर्शन का आक्षेप यह हैं कि असत् व्यवहार से सत् परमार्थ को कैसे प्राप्त किया जा सकता है । असत् नैतिकता सत् परमतत्त्व का साक्षात्कार नहीं करा सकती । अद्वैतवाद में असत् व्यावहारिक नैतिकता और सत् परमार्थिक परमतत्त्व में कोई सम्बन्ध ही नहीं बन पाता क्योंकि उनमें एक असत् और दूसरा सत् है, जबकि जैन विचार में दोनों ही सत् हैं । जैन दर्शन में व्यवहार और परमार्थ दोनों
१. भारतीय दर्शन, खण्ड १, पृ० ३११.
२. जैन थ्योरीज आफ रियलिटी ऐण्ड नॉलेज, पृ० ३६ पर उद्धृत.
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