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आचारदर्शन के तात्त्विक आधार
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हो जाती है । हमारी दृष्टि में अद्वैतवादी जब तक पारमार्थिक स्तर पर अभेद और अद्वयता, और व्यावहारिक स्तर पर भेद और अनेकता को स्वीकार करते हैं तब तक कोई गलती नहीं करते । स्वयं जैन विचारक भी संग्रहनय एवं द्रव्यार्थिक दृष्टि सेतो वस्तुतत्त्व में अभेद मानते ही हैं ।" इस आधार पर भी अद्वैतवाद की आलोचना करना उचित नहीं होगा कि अद्वैत दर्शन में नैतिकता की अवगम्यता व्यावहारिक स्तर पर होती है । जैन विचारधारा में भी नैतिकता की अवधारणा व्यवहारनय या पर्यायार्थिक दृष्टि से ही सम्भव है ।
शांकरदर्शन की मूलभूत कमजोरी
परमार्थदृष्टि से परमार्थ के अभेद को ही सत्य और व्यवहार के भेद को मिथ्या कहकर भी अद्वैतवादी कोई गलती नहीं करते हैं । पारमार्थिक अभेद की दृष्टि से व्यावहारिक भेद मिथ्या है, यह ठीक है; लेकिन उससे आगे बढ़कर हमें यह भी मानना पड़ेगा कि व्यावहारिक भेद की अपेक्षा से पारमार्थिक अभेद भी मिथ्या होगा, क्योंकि वस्तुतत्त्व स्वापेक्षा से सत्य होता है, परापेक्षा से तो मिथ्या होता ही है । अद्वैतवादी आधी दूर आकर रुक जाते हैं। आगे बढ़कर व्यावहारिक भेद की अपेक्षा से पारमार्थिक अभेद को मिथ्या कहने का वे साहस नहीं करते । जब पारमार्थिक अभेददृष्टि की अपेक्षा व्यावहारिक भेददृष्टि को मिथ्या कहा जाता है, तो हमें यह ध्यान में रखना होगा कि यहाँ उसके मिध्यात्व का प्रतिपादन अपेक्षा - विशेष से ही है। एक अपेक्षा के द्वारा दूसरी अपेक्षाओं का समग्र निषेध तो कभी हो नहीं सकता । किसी तीसरी अपेक्षा से दोनों ही यथार्थ हो सकते हैं । यदि हम कहें कि राम दशरथ की अपेक्षा से पुत्र हैं और इसलिए वे दशरथ की अपेक्षा से पिता नहीं हैं, तो इसमें उनके पितृत्व का समग्र निषेध नहीं होता; लव और कुश की अपेक्षा से वे पिता हो सकते हैं । अद्वैतवादी गलती यह करते हैं कि वे परमार्थदृष्टि की अपेक्षा से व्यवहार का दशरथ की अपेक्षा से राम का पितृत्व मिथ्या है और पुत्रत्व सत्य है, और लव-कुश की अपेक्षा से राम का पुत्रत्व मिथ्या है और पितृत्व सत्य है; लेकिन राम की अपेक्षा से तो न पितृत्व मिथ्या है न पुत्रत्व मिथ्या है, वरन् दोनों यथार्थ हैं । उसी प्रकार परमार्थदृष्टि की अपेक्षा से व्यावहारिक भेद मिथ्या है, पारमार्थिक अभेद सत्य है । व्यवहारदृष्टि की अपेक्षा से व्यावहारिक भेद सत्य है, पारमार्थिक अभेद मिथ्या है | लेकिन परमतत्त्व की अपेक्षा से न अभेद मिथ्या है न भेद मिथ्या है, दोनों ही यथार्थ
पूर्ण निषेध मान लेते हैं ।
ही
| अद्वैतवादी विचारक यह क्यों भूल जाते हैं कि भेद और अभेद तो परमतत्त्व के सम्बन्ध में दो दृष्टियाँ । वे स्व-अपेक्षा से यथार्थ और पर- अपेक्षा से अयथार्थ होते हुए भी उस परमतत्त्व की अपेक्षा से तो दोनों ही यथार्थ हैं । अद्वैतवादी दर्शन का मानदण्ड लेकर नापनेवाले मनीषी डा० राधाकृष्णन् जैन दर्शन के अनैकान्तवादी यथार्थ -
१. (अ) तत्त्वार्थभाष्य, ११३५; (ब) अनुयोगद्वारसूत्र, १२३.
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