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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन शंकर का दृष्टिकोण एकान्त एकतत्त्ववादी नहीं है
शंकराचार्य के सत्-सम्बन्धी दृष्टिकोण को ऐकान्तिक रूप में एकतत्त्ववादी मानकर उसमें जो आचारदर्शन की असम्भावना सिद्ध की जाती है, वह उचित नहीं है । डा० रामानन्द ने भी अपने ग्रन्थ 'शंकराचार्य का आचारदर्शन' में एकतत्त्ववादी, सर्वेश्वरवादी एवं मायावादी विचारप्रणाली का निरसन कर शांकर वेदान्त में भी जीव एवं जगत् की सत्ता को स्वीकार किया। वे लिखते हैं, "जीव और जगत् दोनों अत्यन्त विविक्त सत्ताएँ हैं, चाहे वे ब्रह्म से पृथक् कल्पनीय न हों। मायावाद का प्रसिद्ध सिद्धान्त-जगत् की सत्ता के प्रसंग में नितान्त असंगत है। जीवन की सत्ता वेदान्त का मूलाधार है ।-मोक्षावस्था में जीवत्व और व्यक्तित्व के अक्षुण्ण रहने की सम्भावना के साथ वेदान्त में आचारदर्शन की सम्भावना भी अवगम्य हो जाती है ।"" ___ इस प्रकार हम देखते हैं कि आचारदर्शन की सम्भावना के लिए सत्-सम्बन्धी कठोर एकतत्त्ववाद एवं अपरिवर्तनशीलता के सिद्धान्त को छोड़ना आवश्यक हो जाता है। डा० रामानन्द ने शांकर दर्शन में आचारदर्शन की सम्भाव्यता को सिद्ध करने के प्रयास में उसे जिस स्तर पर लाकर खड़ा किया है, वहां शांकर दर्शन सत् की कठोर एकतत्त्ववादी धारणा से दूर हटकर अभेदाश्रित भेद को उस धारणा पर आ जाता है, जहाँ शंकर और रामानुज में कोई विशेष दूरी नहीं रह जाती। स्वयं डा० रामानन्द भी इस तथ्य को स्वीकार करते हैं कि रामानुज और शंकर में वह दूरी नहीं है, जैसो परवर्ती शंकरानुयायियों ने बतायी है। ___ यदि शंकर एकान्त अद्वैतवादी हैं, तो निश्चित ही उनके दर्शन में आचारदर्शन की सम्भावनाएँ धूमिल हो जायेंगी, लेकिन वस्तुस्थिति ऐसी नहीं है। एकतत्त्ववाद में आचारदर्शन की सम्भावना तो तब समाप्त हो जाती है, जबकि हर स्तर पर ही अभेद को माना जाये। लेकिन अद्वैत के प्रस्तोता आचार्य शंकर भी हर स्तर पर अभेद की धारणा को स्वीकार नहीं करते। अद्वैतवादी विचारधारा के अनुसार परमतत्त्व भेद एवं सीमाओं से निरपेक्ष है। उसका कहना है कि भेद मिथ्या है, लेकिन भेद या अनेकता के मिथ्या होने का अर्थ यह नहीं कि वह प्रतीति का विषय नहीं है। यद्यपि समस्या यह भी है कि मिथ्या अनेकता कैसे प्रतीति का विषय बन जाती है ? लेकिन यहाँ इस चर्चा की गहराई में जाना इष्ट नहीं है। अद्वैतवाद यह मानकर चलता है कि प्रतीति की दृष्टि से न केवल वस्तुगत अनेकता है वरन् व्यक्तिगत अनेकता भी है, और प्रतीति के क्षेत्र में इस भेद तथा अनेकता के कारण बन्धन और मुक्ति एवं नैतिकता और धर्म की सम्भावनाएँ भी हैं। इस प्रकार अद्वैतवादी भी केवल पारमार्थिक स्तर पर ही अभेद को मानते हैं; व्यावहारिक स्तर पर तो उन्हें भी भेद स्वीकार है। व्यावहारिक स्तर पर जब भेद स्वीकार कर लिया जाता है, तो आचारदर्शन की सम्भाव्यता अवगम्य १. शंकराचार्य का आचारदर्शन, पृ० ६६-६७. २. वही, पृ० ६२.
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